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नए सत्र में फिर बढ़ गया बच्चों के बस्ते का बोझ, परिजन परेशान

बच्चों के नामांकन के समय लग रहे हैं 8 से 10 हजार रुपये। होमवर्क और बस्ते की बोझ में खोया बचपन। शारीरिक और बौद्धिक विकास की होती है क्षति।

By Ajit KumarEdited By: Published: Thu, 09 May 2019 05:47 PM (IST)Updated: Thu, 09 May 2019 05:47 PM (IST)
नए सत्र में फिर बढ़ गया बच्चों के बस्ते का बोझ, परिजन परेशान

समस्तीपुर, जेएनएन। स्कूली बच्चों का नया सत्र प्रारंभ हो चुका है। इसके साथ ही अब बच्चे अपने पिछली कक्षा से डेढ़ गुना अधिक बस्ते का बोझ ढ़ोने लगे हैं। किताबों की संख्या और काफी अधिक परिणाम में कॉपी ने जहां बच्चों की पीठ तोड़ रही है, वहीं अभिभावकों की कमर भी टूटने लगी है। पटोरी में इन दिनों विभिन्न निजी विद्यालयों में स्थिति यही है। अभिभावकों के समक्ष उहापोह की स्थिति बनी हुई है कि एक ओर जहां सरकारी विद्यालयों में किताबों की संख्या कम है, वहीं निजी विद्यालयों में बस्ते के बोझ ने छात्रों के विकास पर अंकुश लगा दिया है।

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 विश्व में हो रहे रिसर्च ने तो यह बात स्पष्ट कर दिया है कि बच्चों के विकास में होमवर्क और बस्ते का बोझ बहुत बड़ा बाधक है। रिसर्च में यह भी बताया गया है कि कक्षा चार के नीचे के बच्चों के लिए होमवर्क कम दिया जाए ताकि बच्चों को खेलने-कूदने का पर्याप्त समय मिल सके और माता-पिता इन्हें सर्वाधिक समय दे सके किन्तु तस्वीर कुछ और है। एक बड़े बोझ को पीठ पर उठाकर प्रतिदिन छोटे-छोटे छात्र स्कूल जाते है और उधर से होमवर्क का बोझ लेकर घर लौट आते है।

8 से 10 हजार रूपये खर्च करने पड़ रहे नामांकन के समय

एक ओर जहां विद्यालयों में ट्यूशन फी काफी अधिक देनी पड़ती है वहीं अत्यधिक किताबों के मूल्य चुकाने में अभिभावक परेशान हो रहे हैं। नीचे कक्षा के छात्रों के नामांकन, किताब, बैग, कॉपियां, दो तरह के ड्रेस, जूते, टाई, बेल्ट, बैच आदि में अभिभावकों को 8 से 10 हजार चुकाने पड़ रहे हैं। इसके अतिरिक्त प्रत्येक माह विद्यालय का शुल्क अलग से।

 इस शुल्क में जेनरेटर, कम्प्यूटर, लैब, पुस्तकालय, स्मार्ट क्लास, विद्यालय विकास शुल्क, परीक्षा शुल्क, आई कार्ड शुल्क आदि अलग से शामिल किए जाते है। गरीब अभिभावकों को अपने पाल्यों को पढ़ाने के लिए अब सोचना पड़ रहा है। छात्र को आवश्यक सभी सुविधाएं नहीं मिलती तो उन्हें कक्षा में अन्य छात्रों के सामने शर्मिंदगी उठानी पड़ती है।

छात्रों को नहीं मिलता खेलने-कूदने का समय

विद्यालयों में होमवर्क का इतना अधिक लोड रहता है कि छात्र खेलकूद में शामिल नहीं हो पाते। लिहाजा इसका असर उनके स्वास्थ्य पर भी भविष्य में पड़ सकता है। इस भागदौड़ की ङ्क्षजदगी में उनका बचपन कहां खो जाता है, उन्हें भी पता नहीं चलता और धीरे-धीरे उनके स्वभाव में भी परिवर्तन होता है और वे बचपन से सीधे एक दबे हुए किशोर में परिवर्तित हो जाते है।

 भविष्य में देश के विकास का बोझ वहन करने वाले अबोध नौनिहाल आज अपने बस्ते के बोझ से दबे जा रहे हैं। 22 किलो के बच्चे और 12 किलो का उनका बैग, यह उन पर जुल्म नहीं तो और क्या है। आज की शिक्षा प्रणाली में इनका बचपन कुंठित हो रहा है और शारीरिक और मानसिक विकास कुंद पड़ता जा रहा है।

हो सकते हैं बच्चे बीमार

शिक्षा के व्यवसायीकरण के कारण अब निजी विद्यालयों के द्वारा अधिक से अधिक पुस्तक देना उत्कृष्टता का पैमाना बनता जा रहा है। इन विद्यालयों के द्वारा नर्सरी के लिए भी बीस-बीस पुस्तकें दी जाती हैं। उसके साथ अलग-अलग विषयों की अलग-अलग कापियां। लंच बॉक्स, पानी की बोतल और छाता से वजन और भी बढ़ जाता है। इतना अधिक वजन कई बीमारियों का जनक हो सकता है, इसका ख्याल स्कूली शिक्षक कतई नहीं करते हैं।

 विशेष रूप से बढ़ते हुए बच्चों में कैल्शियम की कमी और इतने वजन के कारण वे असमय ही बूढ़े लोगों की तरह झुक जाते हैं। नस से संबंधी बीमारियां पनपने लगती हैं। चिकित्सकों की माने तो बच्चे अब कई शारीरिक और मानसिक बीमारियों से जूझने लगे है। इतनी कम उम्र में इतने बड़े कर्तव्य का बोध कराना अब उन्हें अवसाद की स्थिति में लाने लगा है। नस और हड्डी से संबंधित बीमारियों भी बच्चों में होने लगी है।

  इस संबंध में चिकित्सक डॉ. जी. हैदर ने कहा कि मानसिक दवाब के कारण बच्चों में अवसाद की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। इसके साथ ही अधिक वजन से बैकपेन, रीढ़ में कमजोरी, नेकपेन तथा नस से संबंधित बीमारियां हो सकती है।  

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