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प्रतिमाओं को गढ़ने वाले कलाकारों का जीवन अंधेरे में

जमुई। दुर्गा पूजा, काली पूजा, दीपावली, छठ आदि त्योहारों में न मंदी का कोई असर होता है, और न खर्च की कमी नजर आती है।

By JagranEdited By: Published: Thu, 01 Nov 2018 06:50 PM (IST)Updated: Thu, 01 Nov 2018 06:50 PM (IST)
प्रतिमाओं को गढ़ने वाले कलाकारों का जीवन अंधेरे में
प्रतिमाओं को गढ़ने वाले कलाकारों का जीवन अंधेरे में

जमुई। दुर्गा पूजा, काली पूजा, दीपावली, छठ आदि त्योहारों में न मंदी का कोई असर होता है, और न खर्च की कमी नजर आती है। साल दर साल इसकी भव्यता और आयोजन के खर्च में बढ़ोतरी होती रहती है। लेकिन इसके विपरीत इन त्योहारों में प्रतिमाओं को गढ़ने वाले कलाकारों के जीवन में अंधेरा हर वर्ष गहराता जा रहा है। झाझा प्रखंड के नारगंजो ग्राम निवासी मूर्तिकार सुधीर कुमार पंडित एवं उनके पिता कृष्णदेव पंडित सिमुलतला स्थित दुर्गा मंदिर में माता काली की प्रतिमा को मूर्त रूप देते हुए बहुत ही मायूस भाव से कहते है। अब पुरानी सभ्यता, संस्कृति की वह मोल नहीं जो पहले कभी हुआ करता था। किसी प्रतिमा को स्वरूप देने में कई-कई दिन कड़ी मेहनत करता हूं। लेकिन जो मेहनताना मिलता है वह सपरिवार पेट की आग को शांत नहीं करता। इस कारण हमारे इस पेशे में हम तीन भाइयों में से सिर्फ एक मैं ही इस कार्य को अपनाया। मैं भी इस कार्य को सिर्फ इस लिये अपनाया कारण पिता जी इस कार्य में जिस जगहों में मूर्तिकार का काम किया है। उन जगहों में एक परंपरा के अनुसार कार्य करते आ रहा हूं। मूर्ति निर्माण में कच्चे माल की कीमतें भी तेजी से बढ़ी है। लेकिन पूजा कमेटियां मूर्तियों के ज्यादा कीमतें देने के लिए तैयार नहीं हैं। सुधीर कहते है राज्य सरकार हम मूर्तिकारों को आर्थिक सहयोग व अन्य सुविधा उपलब्ध नहीं करता तो वह दिन दूर नहीं जब मूर्ति गढ़ने की परंपरा धीरे-धीरे इतिहास के पन्नों में सिमट कर कहने व कहाने की बात बनकर रह जाएगी।

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