लोकतंत्र के उत्सव में काफूर हुई नक्सली दहशत
ऊंची पहाड़ी और जंगल से घिरा छकरबंधा। यहां प्रकृति के दर्शन तो होते हैं पर इनसे होकर गुजरें तो दहशत और किसी अनहोनी का साया भी साथ-साथ चलता है। नक्सल प्रभावित क्षेत्र है कई घटनाएं हो चुकी हैं। गुरुवार को इस इलाके में भी मतदान था। वोट बहिष्कार के पर्चे भी फेंके गए थे।
छकरबंधा पहाड़ी से नीरज कुमार :
ऊंची पहाड़ी और जंगल से घिरा छकरबंधा। यहां प्रकृति के दर्शन तो होते हैं, पर इनसे होकर गुजरें तो दहशत और किसी अनहोनी का साया भी साथ-साथ चलता है। नक्सल प्रभावित क्षेत्र है, कई घटनाएं हो चुकी हैं। गुरुवार को इस इलाके में भी मतदान था। वोट बहिष्कार के पर्चे भी फेंके गए थे।
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जिला मुख्यालय से 135 किलोमीटर दूर
यह गया जिले के डुमरिया प्रखंड का इलाका है, पर संसदीय क्षेत्र औरंगाबाद। नक्सली फरमान भारी या लोकतंत्र की महान विरासत। जमीनी हकीकत क्या है? यह देखने पहाड़ से उतरकर उस गांव तक पहुंचना जरूरी था। उत्क्रमित मध्य विद्यालय छकरबंधा में नौ से 13 संख्या तक चार मतदान केंद्र। जिला मुख्यालय से करीब 122 किलोमीटर दूर छकरबंधा पहाड़ी के उस पार। गया से मैगरा तक की दूरी सड़क मार्ग से।
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दहशत के साए में
यहां से फिर करीब 12 किलोमीटर, लेकिन मतदान केंद्र तक जाने में दो घंटे से ज्यादा का समय। उबड़-खाबड़ रास्ते, बोल्डर, गड्ढे, कहीं चढ़ाई, कहीं ढलान। बाइक से संभल-संभलकर चलना पड़ता है। सीआरपीएफ के जवान भी हथियारों से लैस आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ रहे हैं। बाएं-दाएं हर अगली राह पर सोच-समझकर बढ़ते हुए। कहा नहीं जा सकता कि अगले कदम पर कोई अनहोनी न हो जाए। मतदान केंद्र परिसर से ही सुबह आईईडी बम मिल चुका था।
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कांटों से उलझती राह
घने जंगलों से कहीं कांटों से उलझते हुए, कहीं पत्थरों से टकराते सब आगे बढ़ रहे हैं। इससे यहां की स्थिति का भी पता चलता है कि ग्रामीणों को रोजमर्रा के कार्य के लिए बाजार जाने में कितनी मुश्किलें होती होंगी। पहाड़ी इलाका है, सड़क नहीं है। कहीं कच्ची तो कहीं अर्द्धर्निमित सड़क। गांव में सड़क जरूर बन गई है।
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लंगूरों की उछलकूद
दोपहर की धूप चढ़ चुकी है। यहां तो जंगल की हवा ही एसी का काम कर रही। पेड़ के पत्ते झड़ रहे हैं। जंगली बेर और अन्य फलों पर लंगूर लपक रहे हैं। पूरी मौज में। वे वहां से गुजरते वक्त एक नजर जरूर मारते हैं, पर फिर उछलकूद में मस्त।
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सफर 135 किलोमीटर का
सेबरा थाना से आगे हिचकोले खाते हुए जैसे-तैसे बाइक आगे बढ़ रही है। यहां दहशत और सावधानी दोनों बढ़ जाती है। यहां कोई आबादी भी नहीं। हवा सांय-सांय करती चल रही है। यहां पेड़ की टहनियों से लेकर चट्टानों तक सीआरपीएफ जवान दिखते हैं। करीब तीन-चार किलोमीटर आगे बढ़ने पर कोबरा का बेस कैंप मिलता है। यहां बाइक पर जवान तैनात मिलते हैं। यहां से करीब डेढ़ किलोमीटर आगे बढ़ने पर वह मंजिल आती है, जिसकी हकीकत देखने अब तक करीब 135 किलोमीटर का सफर तय हो चुका है।
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मतदान केंद्रों पर दिखा उत्साह
यहां दोपहर 12 बजे तक 16 प्रतिशत वोट पड़ चुके थे। लोगों में उत्साह भी दिख रहा था और बड़े बेखौफ। लोकतंत्र इस सुदूर जंगल-पहाड़ में भी किस तरह मुस्तैदी से डटा है, यह अपने आप में न सिर्फ अद्भुत था, बल्कि तमाम शंका-आशंका को खारिज भी कर रहा था। मतदान अवधि समाप्त होने तक यहां 55 प्रतिशत वोट पड़ चुके थे। गया शहर में भी 55 प्रतिशत, जहां सारी सुविधाएं हैं।
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बूथ पर मतदाताओं की लंबी कतार
छकरबंधा बता रहा था कि लोकतंत्र का उत्सव के उत्साह जंगल-पहाड़ में कहीं ज्यादा परवान चढ़ा हुआ था। बूथों पर लंबी कतार। यहां चेउरी टांड के 80 वर्षीय वृद्ध रामकिऊल मिलते हैं। वे दृष्टिबाधित हैं। पंद्रह साल की उम्र से ही दृष्टिबाधित हैं। वे कहते हैं, मुझे नहीं पता नक्सली क्या होता है। पिछले 10 से 12 चुनाव में वोट दे चुके हैं। दिखता नहीं है, इसलिए एक व्यक्ति को लेकर आए थे। महिलाएं भी कतार में खड़ी हैं। शहरी आबोहवा से दूर जंगल-पहाड़ में लोकतंत्र के प्रति लोगों का यह विश्वास है।