औरंगाबाद के मदनपुर क्षेत्र में खिले चलित्र की मेहनत के फूल, पत्थरों पर लगने लगे मीठे फलों के ढेर
जंगल हमारी लाइफलाइन है। इनके बगैर हम जिंदगी की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। वास्तव में वे दाता हैं। इन्होंने हमसे कभी कुछ लेने की कोशिश नहीं की। बावजूद हमने अब तक इनका सिर्फ दोहन किया है। जंगल का 30 प्रतिशत से अधिक भाग गायब हो चुका है।
मनीष कुमार, औरंगाबाद। जंगल हमारी लाइफलाइन है। इनके बगैर हम जिंदगी की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। वास्तव में वे दाता हैं। इन्होंने हमसे कभी कुछ लेने की कोशिश नहीं की। बावजूद हमने अब तक इनका सिर्फ दोहन किया है। यही कारण है कि आज दुनिया से जंगल का 30 प्रतिशत से अधिक भाग गायब हो चुका है। तमाम विषमताओं तथा लोलुपता के बीच कई ऐसे लोग भी हैं, जो धरती पर हरियाली की चादर बिछा रहे हैं। उनके अथक परिश्रम का ही परिणाम है कि पथरीली व बंजर धरती पर हरियाली छाने लगी है। ऐसे ही एक शख्स चलित्र हैं, जिनकी मेहनत के फूल खिले और आज पत्थरों पर मीठे फलों के ढेर लगने लगे हैं।
मदनपुर प्रखंड का पितंबरा गांव लंबे समय से नक्सलियों का गढ़ रहा है। पथरीली तथा बंजर भूमि। आर्थिक रूप से विपन्न लोगों की लंबी तादाद, लेकिन एक ऐसा भी चरित्र, जिसने अपना सर्वस्व जीवन पत्थरों पर हरियाली लाने में व्यतीत कर दिया। नाम है चलित्र रिकियासन। चलित्र और उसका पूरा परिवार पर्यावरण के प्रति समर्पित है। चलित्र व उनकी पत्नी धर्मतिया और उसके तीन बेटे-बहू की दिनचर्या पत्थर पर फलदार पौधों की बड़ी तादाद लगानी है। उनकी मेहनत, उनकी सोच का ही परिणाम है कि 30 एकड़ बंजर व पथरीली भूमि आज फूड फारेस्ट में तब्दील हो चुकी है।
कुदाल व फावड़े से 30 एकड़ में कर दी बागवानी
चलित्र का जुनून ने कुदाल व फावड़ा से पहाड़ी इलाके की करीब 30 एकड़ की बंजर व पथरीली भूमि पर फलदार पौधे लगाकर बागवानी कर दी। दंपती का यह जुनून इलाके में ग्रीन व वनमैन के रूप में उनकी पहचान बना दी है। चलित्र ने बताया कि जब बगीचा लगाए थे तो पास की जंगली नदी से घड़ा व तसला में पानी भरकर लाते थे और पौधे का पटवन करते थे। कुदाल से कुड़ाई करते थे। इसमें पत्नी का काफी सहयोग मिलता था। दो वर्ष पूर्व बिजली आ गई तो अब बोरिंग से पौधे का पटवन करते हैं।
60 वर्ष में 40 हजार पौधे लगा चुके हैं चलित्र
60 वर्ष के जीवन में चलित्र ने करीब 40 हजार से अधिक पौधे लगाए हैं। उनका जुनून ऐसा है कि गांव छोड़कर लगाए गए बागीचे में ही पूरे परिवार का आशियाना बना है। फूसनुमा जंगली छोपड़ी में ही पूरा परिवार रहता है। दिन व रात पौधे की सेवा व रखवाली करते हैं। इनके लगाए गए बगीचे में आज जंगली पक्षियों का कलरव साफ सुना जाता है। चलित्र ने बताया कि उनकी प्रेरणा से गांव के राजा रिकियासन, राजींद्र रिकियासन, बिगन रिकियासन, सुरी रिकियासन व जगरूप रिकियान ने भी मेहनत का सहयोग किया है।
प्रतिवर्ष 50 हजार से अधिक होती है आमदनी
चलित्र ने बताया कि बगीचे से हर वर्ष करीब 50 हजार से अधिक रुपये की आमदनी होती है। बगीचे की देसी अमरूद स्थानीय गांवों के अलावा पास के मदनपुर बाजार व जिला मुख्यालय के बाजार में भी जाती है। आसपास के गांव के ग्रामीणों के उपयोग से जो बचता है उसे बाजार में बेचते हैं।
कहते हैं वन क्षेत्र पदाधिकारी
वन क्षेत्र पदाधिकारी सत्येंद्र ने कहा कि चलित्र जैसे लोगों की जागरुकता से ही वनों की सुरक्षा होगी। धरा पर हरियाली आएगी। इनके द्वारा लगाए गए फलदार बगीचे की जानकारी वरीय पदाधिकारी को देंगे और पर्यावरण दिवस पर उन्हें सम्मानित करायेंगे।