गया से ग्राउंड जीरो रिपोर्ट : यहां मुकाबला 'प्रेम रोग' से है
रे प्रदेश में परिवर्तन की पक्षधर भाजपा गया शहर में इस बार स्थायित्व की लड़ाई लड़ रही है। पूर्व मंत्री एवं निवर्तमान विधायक प्रेम कुमार 90 से इस सीट पर लगातार जीतते आ रहे हैं। लेकिन गया शहर की जनता ने प्रेम कुमार के सामने दिल खोलकर रख दिया है।
गया [अरविंद शर्मा]। पूरे प्रदेश में परिवर्तन की पक्षधर भाजपा गया शहर में इस बार स्थायित्व की लड़ाई लड़ रही है। पूर्व मंत्री एवं निवर्तमान विधायक प्रेम कुमार 90 से इस सीट पर लगातार जीतते आ रहे हैं। अबकी सातवीं पारी के लिए मैदान में हैं।
16 अन्य उम्मीदवार भी ताल ठोक रहे हैं, जिनमें सीपीआइ के मसूद मंजर और महागठबंधन की ओर से कांग्र्रेस के प्रियरंजन उर्फ डिंपल भी हैं। निर्दलीय राजू वर्णवाल भी वैश्य वोटरों को बांटने-छांटने की कोशिश में जुटे हैं।
पिछले मुद्दे हैं यहां चर्चा में
इस बार भी स्थानीय समस्याएं और मुद्दे लगभग वही सारे हैं, जो पिछली बार के चुनाव में थे। 17 प्रत्याशियों के बीच गया अपनी पुरानी पहचान से उबरने के लिए छटपटा रहा है। शोर मचा रहा है, लेकिन उसकी आवाज बिहार में बदलाव और बचाव के लिए होने वाले शोर में दब जा रही है।
आती-जाती बिजली, धूल उड़ाती सड़कें और हल्की बारिश में भी पानी में डूबे मोहल्ले। गया की कराहती आत्मा को मर्ज तो कई तरह के लगे हैं, लेकिन दवा किसी मर्ज की नहीं मिल रही है। सारी बीमारियां लाइलाज सा दिखती हैं।
बड़ा सवाल कि कितना समय चाहिए
नूतन नगर के राजेश उर्फ खन्ना कहते हैं, किसी भी क्षेत्र के विकास के लिए किसी जनप्रतिनिधि को कितना समय चाहिए, पांच साल, दस साल या 15 साल। कोई भी उम्मीदवार इसके लिए सिर्फ पांच साल का समय मांगता है, लेकिन गया शहर की जनता ने भाजपा के प्रेम कुमार के सामने दिल खोलकर रख दिया।
गया की तस्वीर बदलने के लिए अब और इन्हें कितना समय चाहिए? समीर तकिया के श्रीनिवास कहते हैं कि भाजपा परिवर्तन की बात पूरे प्रदेश में कर रही है, लेकिन गया शहर की जनता परिवर्तन नहीं चाहती है।
कांग्रेस ने खेला पुराना दांव
मगर महागठबंधन की ओर से कांग्र्रेस के प्रत्याशी प्रेम रंजन उर्फ डिंपल गया की जनता को इस लाइलाज 'प्रेम रोग' से मुक्ति दिलाना चाहते हैं। कांग्र्रेस ने प्रेम कुमार के मुकाबले जातीय समीकरण का पूरा ध्यान रखकर ही इन्हें मैदान में उतारा है। डिंपल भी उसी जाति से आते हैं, जिससे प्रेम कुमार। इसलिए शतरंज की बिसात पर अपने ही मोहरों के बीच दोनों आमने-सामने खड़े हैं।
केदारनाथ मार्केट के बाहर पान की गुमटी लगाने वाले चितरंजन कहते हैं कि डिंपल अखाड़े में भले पहली बार उतरे हैं, लेकिन बंदा में दम तो हइए है। दम तो मसूद मंजर में भी कम नहीं है। विजेता का ताल ठोकना कोई बड़ी बात नहीं होती, लेकिन मंजूर बार-बार हारकर भी कभी बेदम नहीं हुए। प्रत्येक हार के बाद अडऩा-अकडऩा और उठकर फिर खड़े हो जाने में दम की पूंजी तो नजर आती ही है।
मसूद फिर मैदान में हैं। फिलहाल डिंपल की संभावनाओं को सबसे ज्यादा खतरा इन्हीं से है। मसूद का ग्र्राफ जितना बढ़ेगा, भाजपा विरोधी मतों की मजबूती भी उसी हिसाब से कम होती जाएगी। और किस मूड में हैं मतदाता? छोटकी डेल्हा के सलीम कहते हैं कि कोई एक ही चुनौती दे सकता है, दोनों अलग-अलग लड़कर नहीं। अभी हम देख रहे हैं कि डिंपल और मसूद में कौन कितने पानी में है।