अपनी मां के पंखों तले चूजे महफूज, इंसानों के बच्चों से छूट रही गोद
बिहार के कई इलाको में आज भी बच्चों की खरीद-फरोख्त का सिलसिला जारी है। इसके पीछे सबसे बड़ी वजह है-गरीबी। बच्चों का पेट पल जाए इसके लिए मां अपने आंचल से उन्हें दूर कर देती है।
गया [अश्विनी]। पारंपरिक जीवनशैली आज भी अपनी लीक पर चलती हुई अहसास कराती है कि आप किसी गांव में हैं। पास ही मुर्गियां दाने चुुग रही होती हैं। चूजों को अपनी सुरक्षा में किसी की भी ललचाई नजरों से महफूज रखे हुए। उधर देखा भी तो झपट्टा मार देंगी, पर यहां इंसानों के बच्चे महफूज नहीं। एक मां की मजबूरी कहें या पिता की गरीबी। ये बच्चे उनकी आंखों के सामने से चले जाते हैं। पता नहीं फिर कब लौटकर आएं, या न भी आएं।
यह तस्वीर बिहार के गया जिले के एक-दो गांवों की है। वैसे, ये दर्जनों की संख्या में हैं। न सिर्फ गया, बल्कि मगध क्षेत्र से लेकर मिथिलांचल और उत्तर बिहार के गांवों तक। कुछ गांवों की तस्वीर से बस इस दर्द को महसूस करने की कोशिश करें कि सुदूर ग्रामीण इलाकों में बड़े हो रहे बच्चों पर मानव तस्करों की नजरें किस तरह गड़ी होती हैं। सवाल देश के उस बचपन का है, जिनकी आंखों में हम भविष्य देखते हैं।
बच्चों की खुलेआम खरीद-फरोख्त!
आपको हम इस समय रीयल फिल्म दिखा रहे हैं, कोई कपोल-कल्पना नहीं। एक-एक शब्द हकीकत है। इस फिल्म को एक टाइटल देते हैं-बाजार में बचपन। हां! यहां बचपन का सौदा हो रहा है। मानपुर का परोरिया, गिजौर, उतरैन, सिकहर, बेलागंज का धनाया, खिजरसराय का नौडीहा, बोधगया का बकरौर, अराती, बाराचट्टी का महुआईं...। ऐसे दर्जनों गांव हैं।
आखिर कुछ लोग क्यों आते हैं यहां
ये प्रश्न उठता है कि कुछ लोग आखिर यहां क्यों आते हैं? क्या वे यहां का जीवन बदलना चाहते हैं? हां! बच्चों का सौदागर सपनों की यही पोटली लेकर आता है। पांच-सात हजार में सौदा कर लेता है। मां-बाप इसमें बच्चों के सुनहरे भविष्य का सपना बुन लेते हैं और गरीबी में कट रहे दिन से निजात पाने को चार पैसे भी मिल जाते हैं। ये बच्चे फिर कब आएंगे, कहा नहीं जा सकता। बाराचट्टी की एक मां छह-सात साल से ऐसे ही इंतजार कर रही है अपने कलेजे के टुकड़े का।
एक गांव है अराती.....
सात-आठ साल पहले यहां से गए कुछ बच्चे हिमाचल प्रदेश से वापस लौट आए हैं। लाइफस्टाइल बदल गई है। जींस-टीशर्ट और आंखों पर चश्मा। मूंछ की हल्की रेखा अब किशोरावस्था का संकेत दे रही है। इनसे बात करने पर कभी महसूस नहीं होगा कि उन्हें जबरन ले जाया गया।
कुछ किस्से मिल जाएंगे, पर ज्यादातर नहीं। असली जड़ यही है कि किस तरह इनका ब्रेनवाश किया जाता है। वे कहते हैं, शुरू-शुरू में मन नहीं लगा, पर बाद में ठीक हो गया। अब भी वे लोग बुलाते हैं, पैसे भी देते हैं, लेकिन इच्छा पर है। अब नहीं जाएंगे, अपने गांव में ही कुछ करेंगे।
एक ऐसा ही किशोर मिलता है। चार-पांच साल पहले बिचौलिए के माध्यम से हिमाचल प्रदेश गया था। लौट आया है। वह कहता है, मां अकेली है न, इसलिए अब नहीं जाएंगे। मां अकेली है न...। जवानी की ओर कदम रखते जिस किशोर की आंखों में मां के प्रति यह प्रेम उमड़ रहा हो, क्या चार-पांच साल पहले मां का आंचल उसने मर्जी से छोड़ा होगा? बातचीत के दौरान नजर अचानक उन मुर्गियों पर पड़ती है, चूजे मां के साथ खेल रहे हैं, पर यहां इंसानों के बच्चों से मां की गोद छूटी जा रही है...।