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घने जंगल में आज बाबा कहरसेली की वार्षिक पूजा, बिहार, झारखंड से बड़ी संख्या में हर साल पहुंचते हैं श्रद्धालु, जानिए कई रोचक बातें

बाबा कहरसेली को सफेद रंग के ही पाठे की बलि चढ़ाई जाती है।शिव के माथे पर चन्द्रमा स्थित होने के कारण वे हमेशा सादा लिवास या सामानों का प्रयोग किया करते थे। सोमवार और शुक्रवार को ही क्यों उनकी पूजा होती है। जानिए सबकुछ।

By Prashant Kumar PandeyEdited By: Published: Mon, 04 Jul 2022 11:41 AM (IST)Updated: Mon, 04 Jul 2022 11:41 AM (IST)
घने जंगल में आज बाबा कहरसेली की वार्षिक पूजा, बिहार, झारखंड से बड़ी संख्या में हर साल पहुंचते हैं श्रद्धालु, जानिए कई रोचक बातें
बाबा कहरसेली की पूजा करते श्रद्धालु, जागरण

 संवाद सूत्र, कौआकोल: कौआकोल में सोमवार को बाबा कहरसेली की वार्षिक पूजा पूरी आस्था और विश्वास के साथ की जाएगी। यह पूजा जमींदारी काल से ही मवेशियों को हिंसक पशुओं से रक्षा के लिए एवं मन्नतें पूरी होने के बाद की जाती है। प्रत्येक वर्ष अषाढ़ माह में मानसून की वर्षा जमकर होने के बाद सोमवार या शुक्रवार को होती है।

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लालपुर गांव से पैदल जाने का मार्ग

बाबा कहरसेली की पूजा की महत्ता धार्मिक, ऐतिहासिक और आस्था के दृष्टि कोण से कौआकोल, जमुई तथा सीमावर्ती झारखंड के क्षेत्रों में बहुत ही महत्वपूर्ण है। कौआकोल प्रखण्ड मुख्यालय से लगभग 10 किलोमीटर दूर लालपुर गांव से दक्षिण दिशा में घने जंगल तक 6 किलोमीटर की दूरी पर बाबा कहरसेली का पूजा स्थल है। जहां तक पहुंचने के लिए लालपुर गांव से पैदल जाने का मार्ग है।

रास्ता बिल्कुल ही पहाड़ी व काफी दुर्गम 

रास्ता बिल्कुल ही पहाड़ी व काफी दुर्गम है। जानकर बताते हैं कि बात अंग्रेजी हुकुमत के समय बंगाल स्टेट का जमींदारी प्रथा के वक्त की है। उस समय यहां औरंगाबाद जिले के पोइमा गांव के इंस्पेक्टर त्रिवेणी सिंह की जमींदारी थी। कौआकोल प्रखण्ड के चरौल निवासी केहर सिंह नामक एक व्यक्ति को रोह परगना के मौजा चरौल, सिउर, महकार, खैरा एवं लालपुर के देख रेख के लिए जमींदार ने रखा था।

सफेद रंग के ही पाठे की चढ़ाई जाती है बलि

बाबा कहरसेली को सफेद रंग के ही पाठे की बलि चढ़ाई जाती है। सोमवार या शुक्रवार को ही पूजा क्यों होती है,इसके पीछे की वजह बताते हुए ग्रामीण कहते हैं कि केहर सिंह भगवान शिव के पूजारी थे। शिव के माथे पर चन्द्रमा स्थित होने के कारण वे हमेशा सादा लिवास या सामानों का प्रयोग किया करते थे। सोमवार शिव का दिन है। जबकि शुक्रवार का दिन सादगी का प्रतीक माना जाता है। इसलिए उनकी पूजा सोमवार या शुक्रवार को ही की जाती है। सफेद पाठे की ही बलि चढ़ाये जाने की परंपरा आज तक चली आ रही है।

केहर सिंह ने बाघ से तीन दिनों तक लड़ते हुए अपनी जान गंवाई थी- जानकारों के अनुसार केहर सिंह उजले घोड़े से अपने चरवाहे के साथ लालपुर के घने जंगल में क्षेत्र भ्रमण कर रहे थे। अचानक उन पर एक जंगली बाघ ने हमला कर दिया। लोक कथाओं के अनुसार उस समय केहर सिंह अपने अकेले दम पर बाघ से तीन दिनों तक लड़ते रह गये और उनका घोड़ा भी उस बाघ के साथ लड़ने में एक सच्चा मित्र की भांति संघर्ष करता रहा। जानकर बताते हैं कि केहर सिंह का नाम अपभ्रंशित होकर कहरसेली हो गया। अब लोग कहरसेली के नाम से इसे जानने लगे हैं।

श्रद्धा एवं आस्था से मांगी गई हर मुरादें होती है पूरी- बाबा कहरसेली के प्रति आस्था है कि श्रद्धा एवं विश्वास के साथ मांगी गई हर मुरादें वे पूरी करते हैं। मन्नतें पूरी होने पर सफेद पाठे की बलि प्रदान की जाती है। इसी का नतीजा है कि नवादा जिला ही नहीं बल्कि बिहार एवं झारखण्ड के कई इलाकों से लोग इनके दरबार में प्रत्येक वर्ष आषाढ़ मास की पूर्णिमा के पहले सोमवार या शुक्रवार को पूजा करने व पाठे की बलि चढ़ाने आते हैं। 

हिन्दू सम्प्रदाय के लोगों में बाबा कहरसेली के प्रति इतनी श्रद्धा है कि किसी प्रकार की चोरी अथवा अन्य किसी भी प्रकार की मनोकामना के लिए उनके दरबार में माथा टेक मन्नत मांगते हैं, उनकी मनोकामना अवश्य ही पूरी होती है।


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