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Amrit Mahotsav: सिर्फ सत्याग्रह नहीं क्रांतिकारियों की भी जमीन है चंपारण

स्वाधीनता के संघर्ष में चंपारण की धरती से कई क्रांतिवीर निकले लेकिन इतिहासकारों ने गांधी जी और चंपारण को अपने लेखन में जो आभा प्रदान की उससे चंपारण के कई क्रांतिकारियों का योगदान धूमिल पड़ गया। ऐसे ही एक क्रांतिकारी बैकुंठ सुकुल के बारे में बता रहे हैं अनंत विजय...

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Mon, 23 Aug 2021 10:42 AM (IST)Updated: Mon, 23 Aug 2021 10:42 AM (IST)
Amrit Mahotsav: सिर्फ सत्याग्रह नहीं क्रांतिकारियों की भी जमीन है चंपारण
स्वाधीनता संग्राम के कई नायकों के देशभक्ति के कृत्य इतिहास की पुस्तकों में दबा दिए गए।

अनंत विजय। महात्मा गांधी के चंपारण पहुंचने के पहले मुजफ्फरपुर में एक ऐसी घटना घट चुकी थी जिसने बिहार समेत पूरे देश के मानस को झकझोर दिया था। यह घटना थी खुदीराम बोस की फांसी। जब खुदीराम बोस को 1908 में मुजफ्फरपुर जेल में फांसी की सजा दी गई तो समाचारपत्रों में छपा कि जब खुदीराम को फांसी के तख्ते पर ले जाया गया था तब वो सीना ताने मुस्कुरा रहे थे। इस समाचार ने वहां के युवकों को देश के लिए कुछ कर गुजरने की प्रेरणा दी। उस दौर में उत्तर बिहार में सक्रिय कुछ युवक संगठित होकर देश पर न्योछावर होने को बेताब हो रहे थे। इनमें जोगेंद्र सुकुल, किशोरी प्रसन्न सिंह और बसावन सिंह के साथ बैकुंठ सुकुल भी थे। जब इनको पता चला कि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के मृत्युदंड का जिम्मेदार शख्स उसी बिहार की धरती पर रह रहा है तो ये बेचैन हो उठे। भगत सिंह और उनके साथियों को मृत्युदंड मिलने के पीछे फणींद्र नाथ घोष की गवाही थी।

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पहले फणींद्र नाथ घोष भी क्रांतिकारियों के साथ थे। जब लाहौर षड्यंत्र केस चला तो वह सरकारी गवाह बन गए। उनकी गवाही की वजह से क्रांतिकारियों की कई गुप्त जानकारियां सार्वजनिक हो गई थीं। लाहौर षड्यंत्र केस (ताज बनाम सुखदेव तथा अन्य) में सात अगस्त, 1930 को फैसला आया। उस फैसले में इस बात का भी उल्लेख था कि मनमोहन बनर्जी तथा ललित मुखर्जी ने भी क्रांतिकारियों के खिलाफ गवाही दी थी, पर उसको पढ़ने के बाद यह स्पष्ट होता है कि यह घोष की गवाही थी जिसमें बेहद सूक्ष्मता और व्यापकता के साथ भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के क्रांतिकारी मंसूबों को उजागर किया गया था। जब इन तीनों को फांसी दे दी गई तो पूरे देश में अंग्रेजों के खिलाफ गुस्सा बढ़ा।

लाटरी से हुआ निर्णय: 1932 में पंजाब के क्रांतिकारी साथियों ने बिहार के अपने साथियों को एक संदेश भेजा कि इस कलंक को धोओगे कि ढोओगे? इस संदेश का अर्थ था कि जिस घोष की गवाही पर लाहौर में सांडर्स को मारने के जुर्म में भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी दी गई, वह बिहार के बेतिया का रहने वाला था और सरकारी सुरक्षा में वहीं रह रहा था। पंजाब के क्रांतिकारी साथियों के संदेश के बाद बिहार में स्वाधीनता के लिए छटपटा रहे युवकों की एक बैठक हुई। इस बैठक में बैकुंठ सुकुल, अक्षयवट राय, किशोरी प्रसन्न सिंह आदि शामिल हुए। ये सभी फणींद्र नाथ घोष से बदला लेने का काम अपने हाथ में लेना चाहते थे। सभी चाहते थे कि स्वाधीनता के लिए जान देने वाले अपने क्रांतिकारी साथियों की शहादत का बदला वे ही लें। बैठक में जब कोई निर्णय नहीं हो पाया तो चिट पर नाम लिखकर लाटरी निकाली गई। बैकुंठ सुकुल भाग्यशाली रहे और उनके नाम की चिट निकल आई। उनको फणींद्र नाथ घोष से बदला लेने की जिम्मेदारी मिली। बैकुंठ सुकुल ने अपने मित्र चंद्रमा सिंह के साथ मिलकर योजना बनाई। दोनों हाजीपुर से करीब 125 किलोमीटर साइकिल चलाकर दरभंगा पहुंचे। वहां अपने एक साथी के साथ ठहरे और एक भुजाली का इंतजाम किया। अपने साथी से एक धोती ली और उसमें भुजाली छिपाकर बेतिया पहुंचे। नौ नवंबर, 1932 की शाम, हल्का अंधेरा होने लगा था। फणींद्र घोष बेतिया बाजार में अपने एक दोस्त की दुकान पर बैठे थे। उसी वक्त बैकुंठ सुकुल और चंद्रमा सिंह ने उन पर हमला कर उसको बुरी तरह से जख्मी कर दिया। आठ दिन बाद उसकी मौत हो गई।

स्पष्ट कर दी गद्दारी की सजा: ब्रिटिश हुकूमत लाहौर केस के गवाह पर हुए इस जानलेवा हमले के व्यापक असर को समझ रही थी। लिहाजा बैकुंठ सुकुल और चंद्रमा सिंह की गिरफ्तारी के लिए चौतरफा घेरेबंदी की गई। करीब आठ महीने की मशक्कत के बाद अंग्रेजों ने चंद्रमा सिंह को कानपुर से और बैकुंठ सुकुल को सोनपुर से गिरफ्तार कर लिया। हमले के बाद ये दोनों तो वहां से निकल गए थे, मगर अफरा-तफरी में उनकी गठरी वहीं छूट गई थी। गठरी से मिले सामान के आधार पर इनकी गिरफ्तारी हुई थी। सात महीने केस चला और फरवरी में बैकुंठ सुकुल को फांसी की सजा सुनाई गई और मई, 1934 में गया जेल में उनको फांसी दी गई। यह पूरा प्रसंग नंदकिशोर शुक्ल की पुस्तक ‘स्वतंत्रता सेनानी बैकुंठ सुकुल का मुकदमा’ में उल्लिखित है। तमाम दस्तावेजों के आधार पर उन्होंने ये पुस्तक लिखी है। चंद्रमा सिंह को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया गया। नवंबर, 1932 से लेकर बैकुंठ सुकुल की फांसी होने तक इस केस से जुड़ी गतिविधियों ने युवकों के अंदर देश के लिए मर मिटने का ज्वार पैदा कर दिया था। बैकुंठ सुकुल ने अपने कृत्य से यह स्पष्ट संदेश दे दिया था कि अंग्रेजों से मिलने और क्रांतिकारियों से गद्दारी करने की सजा मौत है।

स्वाधीनता संग्राम के कई नायकों के देशभक्ति के कृत्य इतिहास की पुस्तकों में दबा दिए गए या उनको उचित अहमियत नहीं दी गई। बैकुंठ सुकुल उनमें से एक थे!


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