पर्यावरण संरक्षण व स्वच्छता के उद्देश्य से मनाया जाता है जुड़-शीतल
प्रकृति से गहरे रूप में जुड़े पर्व जुड़ शीतल की मिथिला में काफी महत्ता रही है। यह पर्व मिथिला की प्रकृति से जुड़े संस्कृति का भी प्रतीक है।
दरभंगा। प्रकृति से गहरे रूप में जुड़े पर्व जुड़ शीतल की मिथिला में काफी महत्ता रही है। यह पर्व मिथिला की प्रकृति से जुड़े संस्कृति का भी प्रतीक है। ग्लोबल वार्मिंग के इस दौर में तो इस पर्व की प्रासंगिकता व महत्व और भी अधिक बढ़ गयी है। जानकारी के अभाव और आधुनिक भौतिकवादी संस्कृति के बढ़ते प्रचलन वाले वर्तमान दौर में इसका दायरा दिनों दिन सिमटता जा रहा है। विशेषकर मिथिलांचल क्षेत्र में भी इसका सिमटना चिताजनक है। मिथिला की वर्तमान पीढ़ी के कई लोग तो इस पर्व के महत्व और इसके आयोजन से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं। अन्य पर्वों की तरह इस पर्व का प्रचार-प्रसार नहीं होना और उपेक्षा इसका प्रमुख कारण माना जा रहा है। वैज्ञानिक महत्व के कारण आज भी इस पर्व का वजूद कायम है, हालांकि समय के साथ कई परंपराएं दम तोड़ती भी नजर आ रही है।
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अर्थ आवर की मिलती है पौराणिक पृष्ठभूमि :
जुड़ शीतल के पहले दिन रविवार को सतुआइन के अवसर पर लोगों ने सत्तु व बेसन से बने व्यंजनों का स्वाद चखा। परंपरा के अनुसार जुड़ शीतल के दूसरे दिन चुल्हा नहीं जलाया जाता। एक दिन चुल्हे को विराम देकर उसके ताप को रोका जाता है। आज इसी तर्ज पर पूरे विश्व में अर्थ आवर मनाया जा रहा है। परंपरा के अनुसार सुबह में घर के बड़े छोटों के सर पर चुल्लु से पानी डालते हैं। माना जाता है कि ऐसा करने से गर्मी के मौसम में मस्तिष्क ठंढ़ा रहता है। इस दिन पेड़ों की जड़ों में भी जल दिया जाता है। इस तरह यह पर्व पौधों के संरक्षण को भी बढ़ावा देता है।
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सामाजिक समरसता का देता है संदेश :
सोमवार को धुरखेल मचेगा। मिथिला में इस दिन का बड़ा महत्व माना जाता है। इस दिन लोग बासी भोजन को ग्रहण करते हैं। साथ ही चुल्हों की मरम्मत भी की जाती है। ग्लोबल वार्मिंग को रोकने के लिए यह परंपरा वर्षों से मिथिला में चली आ रही है। इस दिन जल पात्रों व जलस्त्रोतों की सफाई भी रोचक अंदाज में की जाती है। इस पर्व में जाति धर्म का भेदभाव मिट जाता है और यह पर्व सामाजिक समरसता का संदेश देता है। इस दिन मिथिला में कई जगह पतंगबाजी के साथ ही शिकार खेलने की परंपरा भी जारी है।
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आधुनिक दौर में बदल रही परंपराएं :
आधुनिक दौर में पर्व से जुड़ी कई परंपराएं बदलने लगी हैं। सतुआइन के दिन मिट्टी के जलपात्र के दान करने की परंपरा है। हालांकि, शहरी परिवेश में लोग अब विकल्प के तौर पर स्टील के जलपात्र दान करने लगे हैं। दूसरे दिन शिकार खेलने के बदले बाजार से मांस-मछली खरीदकर लोग मांसाहार का सेवन करते हैं। जुड़-शीतल के दिन आंगन में तुलसी के पौघे पर पनिशाला लगाने की परंपरा भी है। इसे लेकर बाजार में मिट्टी के जलपात्रों की बिक्री भी शुरू हो चुकी है।
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मानव व प्रकृति के संबंध को दर्शाता है पर्व :
पर्यावरणविद् सह एमएलएसएम कॉलेज के प्रधानाचार्य डॉ. वैद्यनाथ झा बतातें हैं कि यह पर्व मानव और प्रकृति से सीधे तौर पर जुड़ा है। यह समय दो मौसमों का संक्रमण काल होता है। गर्मी के आगमन के कारण वाष्पोत्सर्जन की दर बढ़ जाती है और पौधों में जल की मात्रा कम हो जाती है। इसलिए इस पर्व में पौधों में जल देने की परंपरा है। साथ ही बड़े छोटों के माथे पर जल से जुड़ाते हैं जो प्रतीक है कि गर्मी में जल का अधिक सेवन करना चाहिए। साथ ही धुरखेल के माध्यम से जहां साफ-सफाई हो जाती है, वहीं लोगों के जीवन में उमंग भी शामिल होता है।
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