सामाजिक अत्याचार को हराकर भारती बनी मिशाल
दरभंगा। नारी देवी का स्वरूप होती है। यदि वह ठान ले तो कुछ भी असंभव जैसा नहीं है। अपने ²ढ़
दरभंगा। नारी देवी का स्वरूप होती है। यदि वह ठान ले तो कुछ भी असंभव जैसा नहीं है। अपने ²ढ़ संकल्पों की बदौलत बहेड़ी के सिमरी की बेटी भारती रंजन कुमारी नारी सशक्तिकरण की प्रतीक बनी हैं। इन्होंने अपने ससुराल के अत्याचार के खिलाफ संघर्ष कर समाज के पुरुष प्रधान अंधविश्वासी परंपरा को तोड़ा और अपने वृद्ध माता-पिता का सहारा बनी। अत्याचार से संघर्ष करने के जज्बे ने उच्च शिक्षा के लिए प्रेरित किया। इसमें सफलता मिली। फिर कांटों भरे जीवन में सफलता लिखने को चल पड़ीं। शिक्षक बन गईं। शेष समय में अपने बच्चों की देखभाल के साथ-साथ साहित्य से भी जुड़ गईं। कड़ी मेहनत और पिता के हौसले से राज्य स्तर तक का खिताब हासिल किया।
बिहार हिदी साहित्य सम्मेलन की ओर से वर्ष 2019 में युवा साहित्यकार का शताब्दी सम्मान मिला। 2018 एवं 2019 में हिदी दिवस के अवसर पर झारखंड सरकार ने भी सम्मानित किया। महिला दिवस 2020 के अवसर पर भारती को इंडिया वुमन इम्पावरमेंट सुमित अवार्ड के लिए चयनित किया है।
भारती के जुनून और टैलेंट को देख विभाग ने उन्हें सिंहवाड़ा प्रखंड के अरई मध्य विद्यालय में शिक्षक के पद से किलाघाट स्थित डायट ट्रेनिग सेंटर का मास्टर ट्रेनर बना दिया। कई स्कूलों और शिक्षकों को उसने सरकारी योजनाओं को बच्चों के बीच धरातल पर उतारने का टिप्स दिया। यूटीवी टेलीकाइस के फिल्मों के लिए सह स्क्रिप्ट लेखक के रूप में भी काम कर रही है। आज अपनी लेखनी और कविता पाठ के माध्यम से समाज के बुराईयों को दूर करने के लिए लोगों को जागरूक करने में लगी हैं।
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भाई नहीं, माता-पिता ही सब कुछ
बहेड़ी प्रखंड के सिमरी गांव निवासी उदयकांत शर्मा की पुत्री भारती रंजन कुमारी को कोई अपना भाई नहीं है। इस कारण से पिता की संपति पर पट्टीदारों की नजर रही। कई बार उनके घर में ताला जड़ दिया। ताकि, वृद्ध पिता डर जाए और संपत्ति छोड़कर गांव से भाग जाएं। लेकिन, भारती ने इसका डंटकर मुकाबला किया। पट्टीदारों से संघर्ष दौरान ही उनकी शादी हो गई। हालात साथ नहीं छोड़ा। वहां भी उसे संघर्ष का सामना करना पड़ा। भविष्य कुंद नहीं रहे इसे लेकर उसने उच्च शिक्षा हासिल करने का संकल्प ली। बीए, एमए, बीएड और एमएड की पढ़ाई पूरी की। इस शिक्षा ग्रहण करने में पिता ने आर्थिक मदद की। पिता का सपना साकार हो इसे लेकर वह देर रात तक जगती थी। और अचानक वहीं हुआ जो उसे भविष्य को लेकर डर था। पिता का दिया हौसला और डिग्री उसके जीवन को हारने नहीं दिया। बच्चों के साथ-साथ माता-पिता की चिता सताने लगा। ससुराल में साथ रख नहीं सकते थे और मायके में दानव प्रवृति पट्टीदार के पास छोड़ नहीं सकते थे। ऐसी स्थिति वह अपने माता-पिता को सेवा और सुरक्षा करना ही उचित समझा। वह बच्चों को लेकर वापस हुई। सरकारी शिक्षक बनी। इसके बाद वह कभी पलट कर पीछे नहीं देखा।
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