बाढ़ के पानी से लिख रहे समृद्धि की कहानी, परदेस से लौटे मजदूर नहीं जाना चाहते वापस
कोरोना वायरस से संक्रमण के कारण अपने घर लौटे मजदूर अब फिर से वापस जाना नहीं चाहते। घरों में स्वरोजगार आदि करते हैं। बाढ़ के पानी में मछली पकड़कर रुपये कमा रहे हैं।
भागलपुर [नमन कुमार]। बाढ़ का नाम सुनते ही आंखों के सामने तबाही का मंजर दिखने लगता है। कुछ लोगों के लिए यह बहार लेकर भी आती है। ऐसे लोग बाढ़ के पानी में ही मछलियां पकड़कर कमा लेते हैं। लॉकडाउन के बाद परदेस से लौटे किसनपुर पंचायत के एक दर्जन प्रवासी मजदूर इन दिनों बाढ़ के पानी से ही अपनी समृद्धि की कहानी लिखने में जुटे हैं।
गंगा का जलस्तर बढऩे-घटने से जमा हो जाता है पानी
इलाके में गंगा का जलस्तर बढऩे व घटने के समय खेतों और बड़े-बड़े गड्ढों में बाढ़ का पानी जमा हो जाता है। पानी के साथ मछलियां भी आ जाती हैं। ये मजदूर इन खेतों और गड्ढों में मच्छरदानी का जाल डाल मछलियां पकड़ते हैं, फिर उसे छोटे तालाब में डाल देते हैं। इलाके में मछली पालन करने वालों से संपर्क कर उनके यहां छोटी मछलियां बेच देते हैं। बड़ी मछलियां बाजार में बिक जाती हैं। अच्छी खासी कमाई हो जाती है। इस तरह मजदूरों ने गांव में ही स्वरोजगार का नया रास्ता ढूंढ़ लिया है। अब अन्य पंचायतों के प्रवासी मजदूर भी इस रोजगार से जुड़कर आमदनी बढ़ाने की सोच रहे हैं।
एक दिन में निकाल लेते हैं पचास किलो से ज्यादा मछलियां
प्रवासी मजदूर मनोज तांती, प्रताप मंडल कहते हैं कि दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करने के लिए परदेस जाने के बजाय गांव में ही कमाना-खाना बेहतर समझे। इसके लिए 10 मजदूरों की टोली बनाई और मच्छरदानी का जाल बनाना शुरू कर दिया। गंगा के पानी से भरे खेतों और गड्ढों से कतला, रोहू, मांगुर, सीलन जैसी प्रजाति की मछलियां मिल जाती हैं। छोटी मछलियां 150 से 200 रुपये किलो और बड़ी तीन सौ रुपये तक में बिकती हैं। दिनभर यहां-वहां जाल डालकर पचास किलो से ज्यादा मछलियां निकाल लेते हैं। शुरुआती दौर में कम मछली पकडऩे के कारण आमदनी कम थी। धीरे-धीरे मछलियों के साथ आय भी बढ़ती गई। बाढ़ का पानी उतरने तक चार माह यह रोजगार चलेगा। इसके बाद खुद के तालाब में मछली पालन कर आत्मनिर्भर बनने की योजना है। मनोज ने तो अपना तालाब भी तैयार कर लिया है।