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घर सजे मंजूषा से : सृजनशीलता और निष्ठा से मनोज ने दिलाया मंजूषा कला को मुकाम

मनोज के दिल में मंजूषा कला की धड़कन धड़क रही है। उनकी कलात्मक सृजनशीलता व निष्ठा से मंजूषा कला का उत्थान हुआ। उन्‍होंने अपना जीवन मंजूषा कला को समर्पित कर दिया है।

By Dilip ShuklaEdited By: Published: Wed, 19 Feb 2020 08:28 AM (IST)Updated: Wed, 19 Feb 2020 08:28 AM (IST)
घर सजे मंजूषा से : सृजनशीलता और निष्ठा से मनोज ने दिलाया मंजूषा कला को मुकाम
घर सजे मंजूषा से : सृजनशीलता और निष्ठा से मनोज ने दिलाया मंजूषा कला को मुकाम

भागलपुर, जेएनएन। मंजूषा कला भी मधुबनी चित्रकला की तरह पारंपरिक और सांस्कृतिक जीवन का अंग है। इसकी उत्पत्ति बिहुला-विषहरी की लोककथा और विषहरी पूजा के कर्मकांड से जुड़ी है जो मालाकारों के घरों से निकली और आज मंजूषा कला का रूप ले चुकी है। इसे मुकाम तक पहुंचाने में कलाकारों को काफी संघर्ष करना पड़ा। मंजूषा कला को पहचान दिलाने में मनोज कुमार पंडित का संघर्षपूर्ण जीवन शामिल है। उन्होंने मधुबनी चित्रकला के समानांतर मंजूषा कला को लाकर खड़ा करने का संकल्प लिया है।

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मनोज के दिल में मंजूषा कला की धड़कन धड़क रही है। उनकी कलात्मक, सृजनशीलता व निष्ठा से मंजूषा कला का उत्थान हुआ। यह कला अब भागलपुर से बाहर निकलकर देश के अन्य शहरों में प्रतिष्ठित होने लगी है। मंजूषा को आधुनिक बनाने का श्रेय मनोज पंडित को जाता है। मोहद्दीनगर के रहने वाली निर्मला देवी के पुत्र मनोज पंडित के आजीविका का साधन मंजूषा कला ही थी। उनका परिवार आर्थिक रूप से समृद्ध था। मां की कला देख मनोज ने भी मंजूषा सीखना शुरू कर दिया। इसी बीच छठवीं कक्षा में अध्ययन के दौरान शादी विवाह, विषहर पूजा के लिए फूलों के रंगों से मंजूषा का चित्र और मूर्तियां बनाने लगे। इस बीच डॉ. त्रिभुवन पोद्दार ने मनोज पंडित को मंजूषा कला के क्षेत्र में कार्य करने की सलाह दी। मां निर्मला देवी ने मंजूषा कला की सिद्धहस्त कलाकार चक्रवर्ती देवी से मनोज की मुलाकात कराई। वहां कला की बारीकियों को सीखा। उस दौर में मंजूषा कला से बमुश्किल कमाई हो पाती थी। परिवार की माली हालत को देख उन्हें दिल्ली रोजगार की तलाश में जाना पड़ा लेकिन वहां मन नहीं लगा तो वे घर वापस लौट गए। प्राचीन कला केंद्र चंडीगढ़ से उन्होंने पत्राचार के माध्यम से मास्टर इन फाइन आर्ट की डिग्री हासिल की। फिर कुछ दिन मुंबई में अभिनय के क्षेत्र में गुजारा। आखिरकार उन्हें मंजूषा से लगाव के कारण घर वापस आना पड़ा। मंजूषा की साधना में जुटे मनोज अपने कंधे पर ब्रश व रंगों से भरा झोला टांगकर गांव-गांव घूमने लगे। लोगों ने उन्हें पागल तक कहना शुरू कर दिया। लोग कटाक्ष करने लगे कि सांप-बिच्छू बनाना कोई कला है क्या। इसके बावजूद मनोज में मंजूषा कला को आगे बढ़ाने का संकल्प कायम रहा।

मनोज आसपास के मोहल्ले के युवाओं को मंजूषा सीखाते रहे। मूर्ति शिल्प का निर्माण और मंजूषा चित्रकारी उनका धर्म बन गया। एक दौर ऐसा आया जब उनकी गाड़ी सभ्यता और संस्कृति की डगर पर चल पड़ी। मनोज पंडित ने कला सागर नाम से एक सांस्कृतिक संगठन बना लिया। मंजूषा कला का प्रयोग घरेलू उपयोग के सामानों, सिल्क के कपड़ों, कैनवास और मूर्तियों पर करने लगे। 1995 के दौर में लोग कहा करते थे सब बेकार है। 2005 में मंजूषा कला सीखाने के लिए बच्चों के बीच समर कैंप लगाया। इसके बाद गांव-गांव में प्रशिक्षण का दौर शुरू किया। मंजूषा महोत्सव का आयोजन करने की सलाह दी। नारा दिया अपनी कला संस्कृति को बचाओ। मंजूषा कलाकारों की एकजुटता से कला अब महोत्सव का स्वरूप ले लिया। वर्ष 2006 में भागलपुर में राष्ट्रीय युवा दिवस हुआ था, जिसमें मंजूषा कलाकार के रूप में अपनी प्रसिद्धि हासिल कर ली। पहली बार मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को इसी दौरान प्रतीक चिह्न के रूप में मंजूषा पेंटिंग भेंट की। इसी वर्ष पटना के गांधी मैदान में आयोजित प्रदर्शनी में मंजूषा कला प्रदर्शित की गई। दिशा ग्रामीण विकास मंच के सचिव मनोज पांडेय के साथ मिलकर मंजूषा के विकास के लिए काम शुरू किया। मंजूषा कार्यशाला व एक माह का प्रशिक्षण शिविर लगाया। नाबार्ड के तत्कालीन डीडीएम नवीन राय ने मंजूषा कला के प्रचार-प्रसार के लिए दिशा ग्रामीण विकास मंच को एक प्रोजेक्ट दिया। इसके तहत जिले के सभी प्रखंडों में मंजूषा कला का प्रशिक्षण दिया गया। इसके बार कलाकारों के लिए रोजगार के द्वार खुल गए। सिल्क के कपड़ों पर पेंटिंग कर उपार्जन करने लगे। जहां मंजूषा कला को लोग छोटी जातियों की कला कहकर उपहास उड़ाते थे वो अब जन-जन तक पहुंचने को आतुर है। भागलपुर व आसपास क्षेत्रों के 800 से अधिक कलाकार मनोज पंडित से मंजूषा कला का प्रशिक्षण लेकर स्वरोजगार की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। बिहार ललित कला अकादमी की कला मंगल शृंखला, उपेंद्र महारथी शिल्प अनुसंधान संसथान के शिपोत्सव, राष्ट्रीय सांस्कृतिक महोत्सव व भारत लोक पर्व आदि आयोजनों में मंजूषा कला की भागीदारी होने लगी है। नई दिल्ली में आयोजित होने वाली अंतरराष्ट्रीय व्यापार मेले में भी मंजूषा कला धूम मचा रही है।

मनोज पंडित की उपलब्धियां

2016 में बिहार कला पुरस्कार, 2007 में नाबार्ड द्वारा विशिष्ट कला सम्मान, 2008 में कला संस्कृति व युवा विभाग द्वारा मंजूषा कला के लिए पुरस्कार मिला। 2012 में मंजूषा कला के क्षेत्र में राज्य पुरस्कार, केंद्रीय सांस्कृतिक मंत्रालय भारत द्वारा मंजूषा गुरु सम्मान मिला है।


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