माउस की दुनिया में गुम हो गए कुश्ती के अखाड़े
बदलते परिवेश में सब कुछ तेजी से बदलता जा रहा है।
(मुकेश कुमार) लखीसराय। आधुनिकता और विकास की दौड़ में हर तरफ काम के बोझ से दबा हर व्यक्ति खुद को तनाव मुक्त करने के लिए मनोरंजन एवं खेलकूद के साधन खोजता है। मगर बदलते परिवेश में सब कुछ तेजी से बदलता जा रहा है। पारंपरिक खेलों से अनजान बच्चे व युवा सोशल नेटवर्किंग और वीडियो गेम के अभ्यस्त हो गए हैं। परिणाम यह है कि माउस की दुनिया मे कुश्ती, फुटबॉल सहित अन्य पारंपरिक खेल गुम होते जा रहे हैं।
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पहलवानों की नगरी में मृतपाय हो गए अखाड़े
कुश्ती में राष्ट्रीय एवं राज्य स्तर पर नाम रोशन कर चुके पहलवानों की नगरी बड़हिया में यह खेल मृतपाय हो चुका है। कुछ वर्ष पूर्व तक बड़हिया नगर के जितुलाल जी अखाड़ा, रामाश्रय बाबू अखाड़ा, चतुर्भुज ¨सह अखाड़ा, बद्रीदास जी मंदिर, राजा जी ठाकुरबाड़ी, भवानी मंदिर, देवदास मंदिर व श्यामसखा मंदिर स्थित अखाड़ों में पहलवान अपनी कुश्ती कला का प्रदर्शन करते थे। यहां के पहलवानों ने बिहार सहित देश के अन्य राज्यों में अपनी पहलवानी के परचम लहराए थे। जितुलाल ¨सह, शिवटहल ¨सह, हरगौरी ¨सह, छोटू ¨सह, रामाश्रय ¨सह, हरदयाल ¨सह, श्याम किशोर ¨सह, अंतु पहलवान, केदार ¨सह, सियाराम पहलवान, विश्वनाथ ¨सह सहित दर्जनों पहलवानों ने देश में पहलवानी की नई इबारत लिखी थी।
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सूने पड़े अखाड़े देख मायूस हैं राष्ट्रीय स्तर के पहलवान
राष्ट्रीय स्तर के पहलवानों में शुमार रह चुके सियाराम पहलवान कहते हैं कि सरकारी स्तर पर कुश्ती को बढ़ावा देने का कारगर प्रयास नहीं किए जाने के कारण इस खेल के प्रति युवाओं में रुचि कम होने लगी। अगर सरकार इस खेल पर ध्यान दे तो फिर से युवा पहलवान बड़हिया की पुरानी पहचान को वापस ला सकते हैं। पहलवानों को समुचित साधन व अवसर नही मिल पाने के कारण अब पहले की तरह यहां नागपंचमी या अन्य त्याहारों पर कुश्तियों का आयोजन नहीं हो रहा है। इससे नए पहलवानों को इसके दांव-पेंच सीखने का अवसर नहीं मिल पा रहा है। बॉलीवुड के पूर्व सिने अभिनेता व सुप्रसिद्ध पहलवान दारा ¨सह के साथी रह चुके विश्वनाथ पहलवान का कहना है कि सूने अखाड़ों को देखकर बहुत पीड़ा होती है। कभी वहां सैकड़ों युवाओं की भीड़ रहती थी लेकिन आज उधर देखने तक की किसी को फुर्सत नहीं है।
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विद्यालयों से भी गुम हुआ खेल मैदान
लखीसराय जिले में 775 प्रारंभिक विद्यालय, 41 प्लस टू विद्यालय व 91 माध्यमिक विद्यालय हैं। इन सरकारी विद्यालयों में से अधिकांश में हाल के वर्षों में भवन निर्माण कार्य होने से खेल मैदान गायब हो चुके हैं। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार 70 फीसद से अधिक स्कूलों में खेल मैदान नहीं बच गए हैं। खेल की घंटी में बच्चे बंद कमरे में ही उछल-कूद कर ही तसल्ली कर लेते हैं। हाल यह है कि पारंपरिक खेल कुश्ती, कबड्डी, खो खो, वॉलीबॉल, फुटबॉल सहित अन्य खेल धीरे-धीरे विलुप्त होने के कगार पर पहुंचते जा रहे हैं। स्कूलों में खेल सामग्रियां आलमीरे की शोभा बढ़ा रही हैं। राज्य सरकार द्वारा आयोजित विद्यालयी वार्षिक खेलकूद प्रतियोगिता के नाम पर भी महज खानापूरी की जाती है। सरकार द्वारा हर प्रखंड मुख्यालय में स्टेडियम निर्माण की घोषणा अब भी सपना बना हुआ है। क्या कहते हैं विशेषज्ञ
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साइंस फॉर सोसाइटी के पूर्व प्रदेश सचिव रामनरेश प्रसाद ¨सह कहते हैं कि घर बैठे तकनीकी खेल खेलने से बच्चे आधुनिक तकनीक से भले ही रू-ब-रू हो रहे हैं। पर, उनसे उनका समुचित विकास संभव नहीं है। वीडियो गेम, टीवी, इंटरनेट से चिपके रहने से मानसिक विकास नहीं हो पाता है। शहर के बच्चे पारंपरिक खेल का नाम तक नहीं जानते हैं। इसका असर उसके मानसिक विकास पर पड़ रहा है। विद्यालय स्तर पर खेल को बढ़ावा देने के लिए कारगर व प्रभावी कदम उठाने की सख्त जरूरत है।