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Sharatchandra Chattopadhyay birth anniversary : भागलपुर में शुरू हुई थी आवारा मसीहा की साहित्यिक पाठशाला

Sharatchandra Chattopadhyay birth anniversary चंद्रमुखी पार्वती राजू आदि देवदास उपन्यास के कई पात्र भागलपुर के थे। एक बार रवींद्रनाथ की एक रचना सुनकर शरत के नेत्र भींग गए थे।

By Dilip ShuklaEdited By: Published: Tue, 15 Sep 2020 02:50 PM (IST)Updated: Tue, 15 Sep 2020 02:50 PM (IST)
Sharatchandra Chattopadhyay birth anniversary : भागलपुर में शुरू हुई थी आवारा मसीहा की साहित्यिक पाठशाला
Sharatchandra Chattopadhyay birth anniversary : भागलपुर में शुरू हुई थी आवारा मसीहा की साहित्यिक पाठशाला

भागलपुर [विकास पांडेय]। Sharatchandra Chattopadhyay birth anniversary : विश्वविख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की लेखनी उनके ननिहाल भागलपुर में पनपी और समृद्ध हुई थी। ननिहाल में रहकर टीएनजे स्कूल से मैट्रिक तक की शिक्षा पाने वाले छात्र शरत को साहित्य लेखन की शिक्षा भी वहीं मिली थी। उनकी गुरु थीं छोटी नानी कुसुम कामिनी। छात्रावस्था में ही चोरी छिपे पहली कहानी 'मंदिरा' भी उन्होंने वहीं लिखी थी। हालांकि शर्मिले स्वाभाव के कारण उन्होंने उसे हमउग्र मामा सुरेंद्रनाथ गांगुली के नाम से कोलकाता की एक पत्रिका में छपाई थी। यहां रहने वाले सुरेंद्रनाथ गांगुली के प्रपौत्र शांतनु गांगुली बताते हैं कि उनकी पहली ही कहानी चर्चित व रवींद्र पुरस्कार से पुरस्कृत हुई थी। वह कहते हैं कुसुम कामिनी छठी कक्षा पास करने पर ईश्वरचंद्र विद्यासागर से पुरस्कृत हुई थीं। वह यहां हर सप्ताह महिला मंडली में बंकिमचंद्र, माइकेल मधुसूदन आदि के बांग्ला कथा-काव्य पढ़कर सुनाती थीं। एक बार रवींद्रनाथ की एक रचना सुनकर किशोर शरत के नेत्र गीले हो गए थे। आंसू पोछते हुए वे गोष्ठी से बाहर निकल गए थे। शांतनु कहते हैं कि बांग्ला के कई लेखक भी मानते हैं कि शरतचंद्र को साहित्य के प्रति रुचि जगाने में उस गोष्ठी का अहम योगदान था। इसलिए नानी कुसुम कामिनी ही उनकी पहली साहित्यिक गुरु थीं।

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जब शरत ने जाना पथभ्रष्ट होने पर भी बची रह जाती है मानवता

स्त्री चरित्र की जिन विशेषताओं का अंकन कर शरतचंद्र विश्व विख्यात हुए उससे भी उन्हें भागलपुर में ही साक्षात्कार हुआ था। शांतनु के अनुसार छात्र जीवन में ही शरत ने भागलपुर में देवदास उपन्यास लिखनी शुरू कर दी थी। उनका सहपाठी राजू मंसूरगंज स्थित कालीदासा नाम की एक नृत्यांगना का सुमधुर गाना सुनने उसके कोठे पर जाते थे। राजू एक सेठ के यहां मुंशी थे। एक दिन उगाही के हजारों रुपये की थैली लिए वे शरत को लेकर कालीदासा के कोठे पर चले गए थे। वहां से दोनों मित्र देर रात को बेसुध हो गए थे। घंटों बाद होश आने पर वे शरत के साथ बाहर निकल गए थे। घर पर राजू को पता चला कि रुपये से भरा थैला कोठे पर ही छूट गया था। शरत के साथ प्रात: वे लोग कोठे पर पहुंचे। उन्होंने वहां विस्तर आदि टटोला लेकिन रुपये नहीं मिले। रुपये जमा नहीं करने पर नौकरी चले जाने के खौफ से राजू परेशान थे। इतने में कोठे की मालकिन कालीदासा आईं। उन्होंने माजरा जाना तो छिपाकर रखे नोट से भरे झोले उन्हें सौंपकर कहा गिन लीजिए पूरे रुपये हैं न। पूरे रुपये से भरा झोला पाकर शरत के दिल में कालीदासा के प्रति श्रद्धा के भाव जग गए थे। उन्हें प्रतीत हुआ कि पथभ्रष्ट होने के बाद भी नारी में मानवता बची रह जाती है।

देवदास के ज्यादातर पात्र ननिहाल भागलपुर के

शरतचंद्र ने देवदास उपन्यास में उसे चंद्रमुखी नृत्यांगना के रूप में चित्रित करते हुए उसके इस गुण को शिद्दत से उकेरा है। उपन्यास में उन्होंने उसके कोठे पर राजू के साथी के रूप में देवदास का जैसा उल्लेख किया है वह उनकी (शरतचंद्र) की गतिविधियों से मिलता है। भागलपुर की पार्वती भी उनके स्कूल की सहपाठी थी। देवदास में वह देवदास की पारो के रूप में हैं। इस तरह देवदास के ज्यादातर पात्र भी भागलपुर के ही थे।

देवदास उपन्यास के कई प्रसंगों का गवाह रही है शरत की ननिहाल

शरतचंद्र पढऩे में जितना होशियार थे शरारत में उतने ही शातीर थे। इस संभ्रांत परिवार में बच्चों के लिए लट्टू घुमाना, पतंगबाजी, गिल्ली-डंडा जैसे खेल भले ही निषिद्ध थे, लेकिन छठी कक्षा के छात्र शरत चोरी-छिपे सुरेन मामा (सुरेंद्रनाथ)व मणींद्रनाथ मामा आदि के साथ ज्यादातर इन्हीं खेलों में रमे रहते थे। फलत: पकड़े जाने पर उन बच्चों को डांट-फटकार के साथ नाना केदारनाथ गांगुली बेंत की सजा भुगतनी पड़ती थी। इतने पर भी दुस्साहसी शरत सुरेन मामा के साथ कभी पड़ोसी के घर से अमरूद चुराने, तो कभी रात को मछली मारने सुनसान गंगा किनारे निकल जाते थे। एक बार इसका पता चलते ही नाना केदारनाथ गांगुली के गुस्से का पारावार नहीं था। वे बेंत लेकर उनकी पिटाई करने के लिए तैयार बैठे थे। लेकिन घर में प्रवेश करते ही उनकी नानियों, मौसियों आदि ने उन्हें घर के पीछे की गली से आने का इशारा कर बाल-बाल बचा लिया था। नाना के गुस्से को देखते तीन दिनों तक उन्हें एक कमरे में छिपाकर रखा गया था।


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