देखते ही देखते खगडि़या में खत्म हो गई यह संस्कृतिक विरासत, अब यादों में महाराणा प्रताप और औरंगजेब
शारदीय नवरात्र पर लोग खगड़िया के सिद्धपीठ सन्हौली दुर्गा स्थान आया करते थे। 1970-80 के दशक में नाट्य कला मंच का गठन किया गया था। देखते ही देखते चकाचौंध की संस्कृति में डूब गई पारसी रंगमंच की नैय्या।
जागरण संवाददाता, खगडिय़ा। लोग छह कोस की दूरी तय कर घर से खाना बांध शारदीय नवरात्र पर जिले के सिद्धपीठ सन्हौली दुर्गा स्थान आया करते थे। जहां पारसी रंगमंच के एक से बढ़कर एक कलाकार अपनी रंग प्रतिभा से दर्शकों को हैरत में डाल देते थे। लेकिन अब तो सन्हौली के लोगों को भी उनके नाम याद नहीं हैं। चकाचौंध की संस्कृति में पारसी रंगमंच की नैय्या डूब चुकी है।
1970-80 के दशक में सन्हौली दुर्गा स्थान में गणेश सिंह की अगुवाई में नाट्य कला मंच का गठन किया गया था। जिसका जलवा कई वर्षों तक बरकरार रहा। दूर- दूर से लोग शारदीय नवरात्र के अवसर पर हल्दी घाटी के शेर, कलिंग विजय, जहांगीर का इंसाफ, कफन, सिराजुद्दौला, औरंगजेब (नाटक के नाम) को देखने आते थे। महीनों से तैयारी होती थी। सन्हौली ग्रामवासी प्रसिद्ध साहित्यकार नंदेश निर्मल अपनी आंखों पर से चश्मा हटाते हुए कहते हैं- उस समय सैकड़ों की संख्या में कोसों पैदल चलकर लोग नाटक देखने आते थे। जबतक सूरज की पहली किरण न निकल जाए, नाटक चलता रहता था।
दर्शक भी खूंटा गाड़कर बड़े चाव से नाटक देखा करते थे। दर्शकों की समझदारी भी अद्भुत थी। कहां ताली बजाना है, वे जानते थे। हिंदू-मुस्लिम सभी भाई आपस में बैठकर नाटक देखते थे। सौहार्द की संस्कृति को मजबूती मिलती थी। वे कहते हैं- घर से खाना साथ लाते थे। लोग बाल-बच्चे के संग आते थे।
सन्हौली दुर्गा स्थान के रंगमंच पर वर्ष 2007-08 में अंतिम बार 'दाराशिकोह' का मंचन हुआ। जिसमें औरंगजेब का किरदार शिक्षक नेता मनीष कुमार सिंह ने निभाया था। जबकि सुमित कुमार नीरज उर्फ टिंकू दाराशिकोह बने थे। निर्देशन गजेंद्र सिंह का था। मनीष ससिंह कहते हैं- क्या समय था। 'भिनसरबा' (सुबह होने से पहले) में उठकर डायलाग याद किया करते थे। शारदीय नवरात्र आरंभ होने से कई दिनों पहले से रिहर्सल शुरू हो जाता था।
कुछेक लोगों ने बताया कि 2013 -14 में नाट्य कला मंच को दोबारा जीवित करने का प्रयास किया गया था। लेकिन कोशिश परवान नहीं चढ़ सका। अब तो यादों में ही महाराणा प्रताप और औरंगजेब हैं।