Move to Jagran APP

Kargil Vijay diwas : गोली लगने के बाद भी अकेले तीन दुश्मनों को मार गिराया था, वतन की खातिर 23 साल में हो गए कुर्बान

Kargil Vijay diwas ऑपरेशन कारगिल विजय में कम उम्र के शहीद हुए वीर योद्धाओं में रंगरा के गनर प्रभाकर सिंह भी थे। महज 23 साल की उम्र में खुद को कुर्बान कर दिया।

By Dilip ShuklaEdited By: Published: Sun, 26 Jul 2020 08:49 PM (IST)Updated: Sun, 26 Jul 2020 08:49 PM (IST)
Kargil Vijay diwas : गोली लगने के बाद भी अकेले तीन दुश्मनों को मार गिराया था, वतन की खातिर 23 साल में हो गए कुर्बान
Kargil Vijay diwas : गोली लगने के बाद भी अकेले तीन दुश्मनों को मार गिराया था, वतन की खातिर 23 साल में हो गए कुर्बान

भागलपुर [धीरज कुमार]। 26 जुलाई 1999। यह वो तारीख है, जब हमारे वीर जवानों ने पाकिस्तान को धूल चटाकर कारगिल में तिरंगा लहराया था। इस लड़ाई में नवगछिया के इस जाबांज ने महज 23 साल की उम्र में देश पर अपनी जान लूटा दी थी। गोली लगने के बाद भी अकेले तीन दुश्मनों को मार गिराया था। ऑपरेशन कारगिल विजय में कम उम्र के शहीद हुए वीर योद्धाओं में रंगरा चौक प्रखंड के मदरौनी निवासी गनर प्रभाकर सिंह भी थे। 25 जुलाई 1976 को इनका जन्म हुआ था। 1995 में सेना ज्वाइन किए। चार साल बाद ही कारगिल युद्ध हो गया। 11 जुलाई 1999 को वतन की खातिर खुद को कुर्बान दिया।

loksabha election banner

आने का वादा निभाया, पर उसी तिरंगे में, जिसकी रक्षा की खाई थी सौंगंध

मदरौनी के दोस्त रोशन सिंह, भाष्कर सिंह, विभांशु सिंह, सुधांशु सिंह ने बचपन के साथी की यादों को ताजा करते हुए बताया कि प्रभाकर ने वापस लौटकर आने का वादा किया था, जो निभाया भी। लेकिन, आने का अंदाज निराला था। वे लौटे, मगर लकड़ी के ताबूत में। उसी तिरंगे में लिपटे हुए, जिसकी रक्षा की सौगंध दोस्त ने उठाई थी। तिरंगा के आगे प्रभाकर का माथा हमेशा सम्मान से झुका होता था, वही तिरंगा मातृभूमि के इस जाबांज से लिपटकर उस दिन उनकी गौरवगाथा का बखान कर रहा था। वह गांव का ही नहीं देश का बेटा था, जिस पर हमलोगों को हमेशा गर्व रहेगा।

गांव की बहनों ने ओढऩी फाड़कर शहीद को बांधी थीं राखियां

दोस्तों ने रुंधे गले से बताया कि जब शहीद प्रभाकर सिंह का पार्थिव शरीर तिरंगे में लिपटकर आया था, तब दोस्त के शौर्य पर गर्व भरी मुस्कान तो थी, पर पीछे बड़ा दर्द भी छिपा था। इनके साथ बीताए पल-पल की यादों से आंसू नहीं रुक रहे थे। पूरा गांव सिसकियां लेकर रो रहा था। बहन मधु के साथ गांव की अन्य बहनों ने भी अपनी-अपनी ओढऩी फाड़कर शहीद प्रभाकर को राखियां बांधी थी। यह दृश्य देखकर सभी की आंखें भर आई थी। वह सबका दुलारा और दिलखुश इंसान थे। मेरा दोस्त देश के लिए बलिदानी हो गया, यह बोलने से आज भी गर्व का संचार होता है।

दोस्त की शहादत गांव के लिए बनी इबादत

सुजीत सिंह, रंजीत सिंह, कंचन सिंह, सोनू सिंह, प्रिंस कुमार, रोहित सिंह, निखिल सिंह बताते हैं कि प्रभाकर ने बचपन में ही सेना ज्वाइन का इरादा बना लिया था। खूब दौड़ लगाते। साथ में हमलोगों को भी प्रेरित करते। दिनभर पसीने से तर रहते थे। वे काफी मेहनती और साहसी थे। आर्मी ज्वाइन करने के बाद तीन-चार बार घर आए थे। दोस्त की शहादत की मिसाल गांव के युवाओं के दिलों में ऐसी प्रज्वलित हुई कि आज पचास से ज्यादा युवा देश सेवा कर रहे हैंं। दोस्त की शहादत गांव के लिए इबादत बन चुकी है। गांव में एक होड़ सी लग गई फौज में जाने की। किसी घर के चार बेटों में से दो फौज में चले गए तो किसी के दोनों पुत्र फौज में भर्ती हो गए। आज भी गांव के युवा इसी जज्बे से फौज की नौकरी के लिए प्रयास कर रहे हैं।

सहारा इंडिया शाखा की नौकरी छोड़ ज्वाइन की आर्मी

प्रभाकर सिंह के जन्म के एक साल बाद ही 28 नवंबर 1977 को उनके पिता परमानंद सिंह का निधन हो गया था। घर की माली हालत गड़बड़ा गई। पर, मां शांति देवी ने धैर्य के साथ अपने दोनों पुत्रों को पढ़ाया-लिखाया। 1992 ने प्रभाकर ने मैट्रिक और 1994 में इंटर की परीक्षा पास की। इसी बीच मधेपुरा के सहारा इंडिया शाखा में नौकरी मिल गई। लेकिन, उनके दिल में देश प्रेम का जज्बा हिलोर मार था। कुछ दिनों बाद ही सहारा इंडिया की नौकरी छोड़ सेना में बहाल हो गए। पहली बार में चयन नहीं हो पाया था। लेकिन, हिम्मत नहीं हारी। फिर प्रयास किया और नौकरी मिल गई। वे 333 मिसाइल ग्रुप अर्टिलरी सिकंदराबाद में नियुक्त हुए। इनके देशप्रेम के जज्बे को देखकर सेना के अधिकारियों ने 19 अप्रैल 1998 को छठी राष्ट्रीय रायफल बटालियन में प्रतिनियुक्त कर कारगिल भेज दिया। कारगिल में उन्होंने पाकिस्तानी घुसपैठियों से जमकर लोहा लिया। इसी दौरान गोली लग गई, जिसके बाद वे अपने ग्रुप से निकल कर आगे बढ़ गए और तीन पाक सैनिक को ढेर कर खुद शहीद हो गए।

मां कर रही थीं दुल्हन की तलाश, आ गई बेटे की शहादत की खबर

प्रभाकर सिंह की शादी नहीं हुई थी। मां शांति देवी दुल्हन की तलाश कर रही थीं। इसी बीच बेटे की शहादत की खबर आ गई। प्रभाकर सिंह दो भाइयों में छोटे थे। एक बड़ी बहन मधु हैं। बड़े भाई दिवाकर सिंह सन्हौला प्रखंड कार्यालय में क्लर्क हैं।

कोसी के कटाव में बह गया शहीद का स्मारक और घर

मदरौनी में शहीद प्रभाकर का स्मारक बनवाया गया था। लेकिन, 2000 में ही कोसी नदी के कटाव में शहीद का घर और स्मारक कोसी में विलीन हो गया। मां शांति देवी बेटे के अस्थि कलश को सीने से लगाए रखीं। गांव भी बाढ़ में तबाह हो गया, जिसके बाद शांति देवी अपने बड़े बेटे दिवाकर, बहू और पोता-पोती के साथ पूर्णिया में बस गईं। शहीद प्रभाकर सिंह से मां का गहरा लगाव था। सो, आठ साल बाद बेटे के वियोग में मां भी दुनिया से चल बसीं।


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.