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गुजरात में बिन बिहारी डांडिया होगा गरबा, कारीगरों का दिल टूटा, लट्टू की धुरी बनी सहारा

गुजरात का गरबा और बिहारी डांडिया का कनेक्शन बहुत पुराना है। लेकिन पिछले दो सालों से डांडिया से जुड़े कारीगरों का दिल टूटा हुआ है। अब वे लट्टू की धुरी साध मन को दिलासा दे रहे हैं कि अगले साल फिर पहले जैसे दिन लौटेंगे।

By Rahul KumarEdited By: Shivam BajpaiPublished: Wed, 28 Sep 2022 06:46 PM (IST)Updated: Wed, 28 Sep 2022 06:46 PM (IST)
डांडिया का नहीं मिला आर्डर, लट्टू बना रहे बिहार के कारीगर।

राहुल कुमार, जागरण संवाददाता, बांका : गुजरात के अलावा पूरे देश में डांडिया की धूम दशहरा के दिन देखने को मिलती है। इस डांडिया का बांका से भी काफी समय तक कनेक्शन रहा है। बांका की कारीगरों की बनाई डांडिया स्टिक गुजरात से लेकर मुंबई तक, गरबा नृत्य की धूम मचाती रही है। दशहरा से पहले ही अमरपुर के चोरबय, भरको, डुमरामा आदि गांवों में मुंबई तक के व्यापारी डांडिया स्टिक का आर्डर लेकर आते थे।

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इन दो-तीन गांवों से ही 50 हजार से एक लाख तक की संख्या में डांडिया स्टिक बनकर सप्लाई की जाती थी। कोलकाता के व्यापारी इसके लिए महीने-दो महीने पहले ही आर्डर देते थे। मगर लाकडाउन वाले साल से ही डांडिया का आर्डर पूरी तरह बंद हो गया है। परंपरागत रूप से डांडिया बनाने वाले कारीगर लकड़ी का लट्टू आदि खिलौना बना रहे हैं। कारीगर मु. बाबर, मु.नन्हे, जुम्मन, जहांगीर आदि ने बताया कि परिवार चलाने के लिए कोई ना कोई काम तो करना होगा। डांडिया का लाकडाउन के बाद आर्डर ही नहीं आ रहा है। उनका काम आर्डर पर निर्भर है। कोलकाता के व्यापारी लकड़ी उपलब्ध करा कर उन्हें आर्डर देते हैं। बाजार की मांग के अनुसार ही लकड़ी पर काम का आर्डर आता है।

(लट्टू बनाते कारीगर)

साहबगंज जंगल से आती दूधकोरैया की लकड़ी

अमरपुर के गांवों में इन कारीगरों को डांडिया सहित लकड़ी का अन्य खिलौना बनाने के लिए दूधकोरैया की लकड़ी झारखंड के जंगलों में मिलती है। सब दिन उनका रोजगार कोलकाता के व्यापारी पर निर्भर है। वही उसे दूधकोरैया की लकड़ी साहबगंज में उपलब्ध कराते हैं। फिर वहीं से उन्हें लकड़ी के खिलौने या डांडिया का आर्डर मिलता है। लट्टू के साथ ही अभी छोटे बच्चों की चटनी, लकड़ी की मूर्ति आदि का निर्माण होता है।

कोलकाता से अभी सबसे अधिक डिमांड लट्टू की मिल रही है। सारी पूंजी व्यापारी की होती है। उन्हें प्रति दिन काम के लिए अभी तीन से चार सौ रूपया मिल जाता है। मशीन से काम के बाद भी आमदनी अधिक नहीं बढ़ी है। डांडिया बनाने पर भी आमदनी इसी के आसपास होती थी। क्योंकि उन्हें बाजार के मुनाफा से मतलब नहीं था। वे लोग केवल आर्डर पर बनाने की मजदूरी करते हैं। व्यापारी ही तैयार माल गुजरात के शहरों और मुंबई तक भेजते थे।


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