जंग-ए-आजादी की दास्तान : अंग्रेजों की गोलियां खाईं पर महमूद दर्जी ने नहीं छोड़ी बगावत Bhagalpur News
महमूद दर्जी जब क्रांतिकारियों के साथ हो लिए तब उन्होंने अंग्रेजों से बदला लेने की ठान ली। अंग्रेज सिपाहियों पर गोलियां चलाईं। अंग्रेजों की जवाबी गोलियां इन्हें भी लगीं।
भागलपुर [संजय]। नाथनगर के नरगा चंपानगर में दर्जी का काम सीखने वाले महमूद को बस इतना पता था कि अंग्रेजों को देश से भगाना है। बात उस समय की है जब वे 22 साल के थे। मनसकामनानाथ चौक स्थित दुकान से घर लौट रहे थे। रास्ते में अंग्र्रेजों के खिलाफ निकले जुलूस को देखा। नारे लग रहे थे, अंग्रेजों भारत छोड़ो...। फिर क्या था इस नौजवान के कदम एकाएक उस जुलूस की तरफ मुड़ गए।
घर वाले महमूद का इंतजार करते रह गए। यह नौजवान ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ जंग ए आजादी में कूद गया। जुलूस के साथ-साथ बढ़ते चले गए। जुलूस की जानकारी जैसे ही अंग्रेज सिपाहियों को हुई तो उन लोगों ने लाठीचार्ज करके जुलूस को तीतर-बितर कर दिया। महमूद सहित कई लोग पकड़े गए। जेल में तलाशी के दौरान इनकी (महमूद) की कमीज में धागा लिपटी हुई सुई गुत्थी थी। अंग्र्रेज अफसर ने उनसे काम पूछा। इन्होंने बताया कि दर्जी का काम करते हैं। फिर अंग्रेजों ने इन्हें महमूद से महमूद दर्जी बना दिया।
करीब छह माह तक जेल काटने के बाद बाहर निकले महमूद दर्जी के सीने की आग धीमी नहीं हुई। उन्होंने अपनी गतिविधियां और तेज कर दीं और जुड़ गए क्रांतिकारियों के साथ।
आजादी के इस दीवाने की दास्तां सुनने के बाद अशफाकउल्ला खां के गीत याद आते हैं...
जान हथेली पर, एक दम में गंवा देंगे
उफ तक भी जुबां से हम हरगिज न निकालेंगे
तलवार उठाओ तुम, हम सर को झुका देंगे
सीखा है नया हमने लडऩे का यह तरीका
चलवाओ गन मशीनें, हम सीना अड़ा देंगे
दिलवाओ हमें फांसी, ऐलान से कहते हैं
ख़ून से ही हम शहीदों के, फ़ौज बना देंगे।
महमूद दर्जी जब क्रांतिकारियों के साथ हो लिए तब उन्होंने अंग्रेजों से बदला लेने की ठान ली। अंग्र्रेज सिपाहियों पर गोलियां चलाईं। अंग्रेजों की जवाबी गोलियां इन्हें भी लगीं। उनके दाहिने पैर में गोली लगी। इलाज यहां नहीं करा सकते थे सो भागकर कोलकाता पहुंच गए। वहां पर उनकी मुलाकात सुभाष चंद्र बोस से हुई। सुभाष चंद्र बोस ने उन्हें पहचान लिया। वहां इलाज कराते रहे। कुछ दिन बाद फिर भागलपुर लौटे। पर हार नहीं मानी। यहां फिर क्रांतिकारियों के साथ छिपने लगे। इसी बीच सूचना आई अब देश आजाद हो गया। उसके बाद घर लौटे। इधर, उनके बच्चे बड़े हो गए थे। वे भी रोजी रोजगार करने लगे थे। बीते 25 नम्बर 2018 को इस आजादी के दीवाने ने हमेशा के लिए अपनी आंखे मूंद लीं।
महमूद दर्जी के छोटे बेटे बताते हैं जब तक पिता जी जीवित थे तब उनके जोश में कोई कमी नहीं थी। वे हम लोगों को उस समय की कहानी सुनाते थे। उनकी कहानी सुनकर लगता था, ये आजादी इतनी आसानी से नहीं मिली है। 95 वर्ष की उम्र में भी हर रोज व्यायाम करते थे। इंतकाल के कुछ महीने पहले उनकी तबीयत बिगड़ी थी। उसके बाद एक दिन हम सभी को छोड़कर चले गए। बस उनकी यादें रह गई हैं। बताते हैं पिता के निधन के बाद मां भी अब बदहवास सी हो गई है।
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