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Bihar Assembly Election 2020 : वारिसों और विरासत के बीच बीमार हुई सियासत

Bihar Assembly Election 2020 पूर्व बिहार कोसी और सीमांचल के कई विधानसभा क्षेत्रों में बड़े पैमाने में नेता पुत्र-पुत्रियों को टिकट दिया गया है। कई जगह और बाहर से उम्मीदवारों को आयात करना पड़ा। इस कारण स्‍थानीय कार्यकर्ता भी नाराज हुए हैं।

By Dilip ShuklaEdited By: Published: Mon, 12 Oct 2020 12:35 PM (IST)Updated: Mon, 12 Oct 2020 12:35 PM (IST)
टिकट बंटवारे का दृश्य लगभग स्पष्ट हो चुका है।

भागलपुर [शंकर दयाल मिश्रा]। इस चुनाव में टिकट बंटवारे का दृश्य लगभग स्पष्ट हो चुका है। पूर्व बिहार, कोसी और सीमांचल में बड़े पैमाने में नेता पुत्र-पुत्रियों को टिकट दिया गया है। कई जगह पार्टियों को समक्ष उम्मीदवारों का संकट हुआ और बाहर से उम्मीदवारों को आयात करना पड़ा।

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यहां वारिसों और विरासत के बीच बीमार होती सियासत की दासतां लंबी है। बात शुरू करते हैं सीमांचल के अररिया, किशनगंज और पूर्णिया जिले की 16 सीटों से। सीमांचल के गांधी कहे जाने वाले तस्लीमुद्दीन का इन सभी सीटों पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभाव रहा था। राजद का संगठन उनके ही मार्गदर्शन में यहां फला-फूला। उनकी मौत के बाद यहां एक बड़ा शून्य नजर आ रहा है। राजद में कई सीटों पर संकट यह कि टिकट किसे दें। पुराने कार्यकर्ताओं का नाम-हैसियत इतना छोटा रह गया उसमें विजय नजर नहीं आ रही। ऐसे में नए आए नेताओं में संभावना तलाशी जा रही है। मसलन पार्टी ने ठाकुरगंज सीट पर राजद ने पूर्व सांसद मो. असरारुल हक के पुत्र सऊद आलम को टिकट दिया। सऊद कोरोनाकाल शुरू होने से तुरंत पहले सीएए के विरोध में हो रहे प्रोटेस्ट के दौरान पार्टी में आए थे। ऐसी स्थिति अन्य कई सीटों पर बनी हुई है। खुद तस्लीमुद्दीन के गृहक्षेत्र जोकीहाट से उनके दो बेटे पूर्व सांसद व विधायक सरफराज आलम और विधायक शाहनवाज आलम खुद टिकट पाने के लिए लड़ रहे हैं। अन्य सीटों पर भी आम कार्यकर्ताओं के लिए कोई जगह बचती ही नहीं। ऐसे ही भाजपा में किशनगंज सीट से स्वीटी सिंह और बहादुरगंज सीट अवध बिहारी सिंह के नाम मानो बुक ही हो गई है। हालांकि इन दोनों प्रत्याशियों की लगातार हार को देखते हुए कुछ कार्यकर्ताओं ने दावा ठोका है, पर चुनाव लडऩे के लिए सभी प्रकार की योग्यता में ये कार्यकर्ता उन दोनों के समक्ष कितने टिक पाते हैं यह देखने वाली बात होगी।

नहीं खड़ी हो रही योग्य नेताओं की दूसरी कतार

राजनीतिक विश्लेषक विजय वर्धन कहते हैं कि यह स्थापित बड़े-बुजुर्ग नेताओं द्वारा पार्टी में दूसरी कतार खड़ी नहीं करने का खामियाजा है। एक दौर था जब सीमांचल में तस्लीमुद्दीन, अब्दुल गफूर कोसी में सलाउद्दीन, पूर्व बिहार में सदानंद सिंह, अश्विनी चौबे, सरीखे जमीनी नेता अपने कामकाज और जनसंपर्क के कारण राजनीतिक रूप से सफल हुए। राजनीतिक फसल काटने के बाद इन नेताओं ने राजनीतिक शक्तियों को अपने इर्द-गिर्द या अपने परिवार तक सीमित रखा। वैसे तकरीबन सभी नेता ही अपनी जीती हुई सीट को अपनी मिल्कियत मान लेते हैं। वे इसे अपने बेटे-बेटियों को सौंपते हैं। इसी चुनाव में देखें तो कहलगांव सीट पर कांग्रेस से विधायक सदानंद सिंह ने अपने पुत्र शुभानंद मुकेश को उतारा है। जदयू ने अमरपुर से अपने विधायक जनार्दन मांझी के पुत्र जयंत राज को टिकट दिया। राजद ने पूर्व सांसद जयप्रकाश यादव की पुत्री दिव्या प्रकाश को तारापुर और सिमरी बख्तिायारपुर से युसूफ सलाउद्दीन को टिकट दिया। युसूफ के पिता महबूब अली कैसर अभी खगडिय़ा से लोजपा से सांसद हैं। यानी सीट किसी का टिकट परिवार को ही। जमुई में भाजपा की उम्मीदवार श्रेयसी सिंह पूर्व सांसद स्व. दिग्विजय सिंह की पुत्री हैं। कुल मिलाकार, इक्का-दुक्का उदाहरणों को छोड़ दें तो राजनीतिक दलों के शीर्ष पर बैठे लोग विरासत की सियासत को ही स्वीकार करते हैं ... मान्यता देते हैं...। यही कारण है कि अधिकतर क्षेत्रों से जो नेता सदन पहुंच गए वे अपने इलाके के कार्यकर्ता को आगे बढऩे नहीं देते। उनकी चाहत होती है सत्ता-पावर हमेशा उनके या उनके परिवार में रहे। हम भी इसे उनकी विरासत कह देते हैं। यह हमारी गुलाम मानसिकता का परिचायक है।

हर हाल में चाहिए जीत

टीएनबी कॉलेज के राजनीतिशास्त्र के सहायक प्राध्यापक रविशंकर कुमार चौधरी कहते हैं कि अब दलीय स्तर पर नीति-सिद्धांत की बातें बेमानी है। किसी पार्टी ने लोकतंत्र की मजबूती के लिए जमीन पर तैयार हो रहे नेताओं को आगे बढ़ाने का दायित्व नहीं निभाया। सियासत को यह गंभीर रूप से बीमार करने वाली बात है। पार्टियों की ओर से जिन उम्मीदवारों को टिकट दिया गया है उसका आकलन करने से स्पष्ट है कि या तो विरासत को तरजीह दी गई है या फिर धनबल को। वैसे, अभी चुनाव खर्चीला बना दिया गया है। ऐसे में भाजपा जैसी अमीर पार्टियों को छोड़ दें तो शेष कोई अपने प्रत्याशी को चुनाव लडऩे के लिए पैसे नहीं देती। स्वभाविक है कि पार्टियां वैसे दावेदारों को खोजने लगती है तो खुद सक्षम हो। इसमें आम कार्यकर्ता पीछे चला जाता है।

अलग उदाहरण भी आया सामने

पिछले चुनाव में भागलपुर में सांसद अश्विनी चौबे के पुत्र अर्जित शास्वत चौबे को भाजपा ने टिकट दिया था। बक्सर का सांसद चुने जाने अश्विनी चौबे भागलपुर से 20 वर्ष से विधायक थे। उनके पुत्र को टिकट दिए जाने का स्थानीय स्तर पर भारी विरोध हुआ। अर्जित हार गए। अर्जित इस बार भी मजबूत दावेदार थे, पर भाजपा ने अपने मंत्री अश्विनी चौबे के पुत्र की जगह जिलाध्यक्ष रोहित पांडेय को टिकट देकर अलग उदाहरण पेश किया है। ऐसे ही किशनगंज विस सीट पर विधायक से सासंद में प्रोन्नत हुए मो. जावेद ने उपचुनाव में अपनी मां को उतार दिया था। तब पार्टी कार्यकर्ताओं ने भारी विरोध कर दिया था। वे हार गई थीं। अब किसी और को खोजने की बात कही जा रही है।


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