कुसहा त्रासदी: 500 से ज्यादा मौतें-लाखों हुए बेघर, नहीं मिट रहा 13 साल पहले का दर्द
कुसहा त्रासदी (Kusha tragedy) 18 अगस्त का इतिहास बिहार के लिए काल जैसा ही है।पूर्वी बिहार में कोसी के कहर ने त्रासद तस्वीरें छोड़ीं उसका दर्द आज भी लोगों के जहन में जिंदा है। बिहार के सुपौल मधेपुरा और सहरसा में इस जल प्रलय ने ताडंव मचाया।
संजय कुमार, छातापुर (सुपौल)। कुसहा त्रासदी (Kusha Tragedy): 18 अगस्त का इतिहास पूर्वी बिहार के भयावह दर्द को बयां करता है। साल 2008 को कुसहा बांध को तोड़ कर आजाद हुई कोसी नदी ने क्षेत्र में विनाश की गाथा लिख डाली। कोसी की प्रचंड लहरों ने क्षेत्र में ऐसा तांडव मचाया कि चारों ओर कोहराम मच गया। कहने को तो इस त्रासदी के 13 वर्ष हो गए लेकिन त्रासदी की त्रासद तस्वीर मिट नहीं रही है। कुसहा त्रासदी के दौरान कोसी की उन्मुक्त धाराओं ने हजारों एकड़ उपजाऊ जमीन को बालू से पाट दिया। हरे-भरे खेतों से होकर नदी बहने लगी, खेतों में बड़े-बड़े गड्ढे बन गए। क्षेत्र की उपजाऊ भूमि पर बालू की मोटी चादर बिछ गई, इसमें खेती नहीं होती बल्कि कास उगते हैं।
अधिसंख्य किसान अनुदान से रहे वंचित
सरकार द्वारा बालू हटाने के नाम पर अनुदान तो दी गई परंतु अनुदान की यह राशि उंट के मुंह में जीरा साबित हुई। अधिसंख्य किसान इस लाभ से वंचित रह गए। नतीजा हुआ कि खेतों से बालू हटी नहीं। आज भी बालू से पटे खेतों में खेती नहीं हो पा रही है। बालू भरे होने से जमीन बंजर हो गई है। इसमें उपज नहीं होने से किसान पेट की आग बुझाने व परिवार के भरण-पोषण के लिए अन्य प्रदेशों को जाने के लिए मजबूर हैं। उधमपुर, लालगंज, खूंटी, डहरिया आदि पंचायत के किसान बताते हैं कि खेतों में बड़े-बड़े गड्ढे बन गए हैं। इसकी भराई की सरकार के पास कोई योजना नहीं है।
कुसहा त्रासदी की दर्दनाक तस्वीर
- त्रासदी में सैकड़ों लोगों की जान चली गई, लाखों बेघर हो गए।
- पूर्वी बिहार के 441 गांव चपेट में आए।
- सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 526 लोगों की मौत हुई।
- इस त्रासदी में कई लापता हो गए।
- सरकार ने मृतकों के स्वजनों को 2.50 लाख रुपये देने का ऐलान किया था।
- कइयों को ये राशि नहीं मिली है।
भवनों के मलवे दिला रहे भयावहता की याद
प्रखंड क्षेत्र की बलुआ, जीवछपुर, उधमपुर माधोपुर, लालगंज, लक्ष्मीपुर खूंटी, छातापुर, डहरिया, घीवहा आदि पंचायतों में कई सरकारी भवन, स्कूल, उप स्वास्थ्य केंद्र के अलावा निजी मकान कोसी के प्रचंड वेग के सामने धराशायी हो गए। कई पुल-पुलिया के निर्माण के बाद भी कोसी की विनाशलीला में तबाह हुए भवनों के मलवे आज भी भयावहता की याद दिला रहे हैं। इस बाढ़ में पानी जमे रहने के कारण काफी संख्या में किसानों के फलदार वृक्ष सूख गए। इसके मुआवजे की आस आज भी पीड़ितों को है। ग्रामीण सड़कें आज भी जर्जर बनी हुई हैं।
सिहर उठते हैं लोग
भीमपुर निवासी दामोदर सिंह (70), महावीर सिंह (60), डहरिया निवासी जयनंदन यादव (70), लक्ष्मीपुर निवासी भूमि शर्मा (60), मटियारी गांव निवासी गोपाल कृष्ण गुरमैता आदि अब भी उस मंजर को याद कर सिहर जाते हैं। बताया कि पूरा गांव कोसी की मुख्यधारा में आ गया था। किसी का कुछ भी नहीं बचा। राहत के नाम पर अनाज एवं कुछ नकदी दी गई। गृह क्षति के नाम पर 10 हजार रुपये दिए गए। बाढ़ से पहले यहां सभी फसल होती थी।
बाढ़ के बाद कास उगते हैं। खेतों तक सड़क नहीं होने के कारण रेत की मोटी परत निकालना बहुत मुश्किल काम है। फिर से उपजाऊ बनने में इस क्षेत्र को 50 वर्ष से अधिक का समय लग जाएगा। वैसे इस त्रासदी के बाद कई घोषणाएं हुईं, काम भी हुए, लेकिन बेहतर कोसी बनाने का सपना आज भी अधूरा है। सैकड़ों किसानों को भूमि क्षति एवं फसल क्षति का लाभ नहीं मिलने का दुख आज भी बरकरार है।
उम्मीदों के सहारे जी रहे लोग
बाढ़ में ध्वस्त हुई सड़कों व पुल-पुलियों का पुनर्निर्माण कराया गया। सरकार द्वारा एक बेहतर कोसी देने का संकल्प दोहराते हुए लोगों को सांत्वना दिया गया। लोग उसी उम्मीद का दामन थामे जिए जा रहे हैं अन्यथा कोसी ने तो लोगों की स्थिति आगे नाथ ना पीछे पगहा वाली कर दी है।