वामदल बांका में अब तक नहीं फहरा सका लाल झंडा
बांका। संसदीय इतिहास के करीब सात दशक बाद भी बांका में वामपंथी दलों को लाल झंडा फहराने का मौका नसीब नहीं हुआ है।
बांका। संसदीय इतिहास के करीब सात दशक बाद भी बांका में वामपंथी दलों को लाल झंडा फहराने का मौका नसीब नहीं हुआ है। वैसे इस क्षेत्र में इसकी अगुवाई सीपीआइ करता रहा। लेकिन, वामदलों की ताकत बस धोरैया विधानसभा क्षेत्र तक ही सिमटी रह गयी। जबकि बांका का धोरैया गोड्डा से लेकर भागलपुर लोकसभा क्षेत्र तक का दौरा करता रहा। वाम दलों ने जब भी बांका से प्रत्याशी उतारा उसकी ताकत धोरैया से आगे नहीं बढ़ पायी। हां, 2014 के संसदीय चुनाव में जब सीपीआई ने जदयू से गठबंधन कर प्रत्याशी उतारा, तो उसके सपनों को पर लगने वाला था। मैदान में उतरे सीपीआई प्रत्याशी संजय कुमार ने अबतक का रिकार्ड दो लाख 20 हजार मत हासिल भी किया। धोरैया विधानसभा में सीपीआई प्रत्याशी की बढ़त रही। इसके बाद भी वाम ताकत तीसरे स्थान से आगे नहीं बढ़ सका। इसके पहले 2009 के संसदीय चुनाव में भी सीपीआई से संजय कुमार मैदान में उतरे थे। इस बार भी धोरैया में उनका जबरदस्त प्रदर्शन रहा। वह धोरैया में आगे रहकर भी लोकसभा क्षेत्र में केवल 37 हजार मत ही हासिल कर सका। इसके पहले ही बात करें तो 1971 के संसदीय चुनाव में सीपीआई प्रत्याशी के तौर पर वासुदेव यादव बांका संसदीय सीट का चुनाव लड़े थे। उन्हें करीब 69 हजार मत हासिल हुआ था। वे कांग्रेस के प्रत्याशी शिव चंडिका प्रसाद से चुनाव हार गये थे। इस प्रदर्शन के अलावा लोकसभा में वामदल का कभी प्रभावी प्रदर्शन नहीं रहा। इस संसदीय चुनाव में भी वामपंथी ताकतें एका की कोशिश कर रही है। उसकी महागठबंधन से बात हो रही है। बात नहीं बनने की स्थिति में ही इस सीट पर उसका प्रत्याशी फिर किस्मत आजमाने उतर सकता है। वामपंथी राजनीति से जुड़े और सीपीएम के पूर्व सचिव बांके बिहारी कहते हैं कि धोरैया विधानसभा सीट पर सीपीआई का ढाई दशक से अधिक समय तक कब्जा रहा। पार्टी के पास कैडर और कार्यकर्ता दोनों है। अब भी वामदलों का हर आंदोलन प्रभावकारी होता है। लेकिन, यह सच है कि वोट के मामले में हम कभी आगे नहीं हो सके। इसकी वजह बांका की राजनीति में वैचारिक तीखापन नहीं होना है। विधानसभा चुनावों में कई बार सीपीआई के साथ भाकपा माले आदि दल प्रत्याशी देता रहा है।