अपने सत्कर्मो से मानव जीवन को दूसरे के लिए बनाएं उपहार
अरवल। अहंकार मानव के समूल विनाश का कारण है। सद्भावना व प्रेम से सबको साथ लेकर चलने की सीख मिलती है।
अरवल। अहंकार मानव के समूल विनाश का कारण है। सद्भावना व प्रेम से सबको साथ लेकर चलने की सीख मिलती है। समाज को एकता के सूत्र में बांधे रखने के लिए हर घर में श्री रामचरित मानस का अनुसरण होना चाहिए। जब पूरा देश एक सूत्र में बंध जाएगा तो राम राज्य का सपना साकार हो जाएगा। यह बात स्वामी श्री रंग रामानुजाचार्य जी महाराज ने महेंदिया स्थित बालाजी बेंकेटेश्वर धाम में आयोजित राम कथा के तीसरे दिन श्रद्धालुओं को कथा का रसपान कराते हुए कहा। उन्होंने कहा कि हमारा अस्तित्व और जीवन एक बहुत बड़ी पहेली है। यह परमात्मा का दिया सबसे बड़ा उपहार है, लेकिन हमारी दुर्बुद्धि ने इसे बहुत बड़ी पहेली बना दिया परंतु हंसमुखता से हम जीवन को उपहार बना सकते हैं। संसार मे रहकर जीवन को जीने की कला सीखने की आवश्यकता है। उन्होंने प्रवचन करते हुए कहा कि जो फल सतयुग में ध्यान समाधि से, त्रेता और द्वापर युग में यज्ञ आदि करने से प्राप्त होता था वही पुण्य कलयुग में कथा श्रवण करने मात्र से प्राप्त होता है। रामकथा लोगों को एकता के सूत्र में बांधती है। उन्होंने कहा कि श्रद्धालुओं को कथा के माध्यम से धर्म पथ पर चलना सिखाया जाता है। कथा केवल श्रवण करना ही नहीं बल्कि उसको अपने जीवन में उतारना ही धर्म है। मनुष्य यदि अपने मन को ठीक करे व चरित्र को संभाले तो तीसरी सीढ़ी पर श्रीराम के दर्शन हो जाते हैं। उन्होंने शिव धनुष एवं सीता का परिचय देते हुए कहा कि जनक ने विश्वामित्र से पूछा कि मैं आपकी क्या सेवा करूं? विश्वामित्र ने कहा कि ये राम लक्ष्मण दोनों वीर राजा दशरथ के पुत्र हैं। आपके यहां शिव धनुष देखने के लिए आए हैं। आप इन्हें दिखा दीजिए। इससे इनकी इच्छा पूरी हो जाएगी। यह दोनों राजकुमार धनुष देखकर लौट जाएंगे। राजा जनक ने कहा कि मैं इस धनुष का परिचय देता हूं। विश्वकर्मा ने दो दिव्य धनुष का निर्माण कर एक धनुष त्रिपुर का वध करने के लिए शंकर जी को दिया तथा दूसरा धनुष भगवान विष्णु को दिया। त्रिपुर के बाद शंकर जी ने दक्ष प्रजापति के यज्ञ को ध्वस्त कर देवताओं से कहा कि दक्ष ने अपने यज्ञ में भाग नहीं दिया है । मैं यज्ञ में भाग लेना चाहता था , परंतु लोगों ने प्रयास नहीं किया। अत: आज मैं इस धनुष से आप देवों का मस्तक काट डालूंगा। देवगण भयभीत होकर शंकर जी की स्तुति करने लगे । देवों की स्तुति से प्रसन्न होकर शंकर जी ने धनुष को उनको दे दिया। जनक जी ने कहा कि देवों ने उस धनुष को मेरे पूर्वज निमि के ज्येष्ठ पुत्र देवरात के पास धरोहर के रूप में दे दिया था। वही यह शिव धनुष है, जिसका पूजन मेरे यहां सदा होता रहा है। यह धनुष सीता विवाह का निमित्त कैसे बना? यह कहते हुए राजा जनक ने सीता उत्पत्ति का प्रसंग बताया उन्होंने कहा कि एक दिन यज्ञ के लिए भूमि शोधनार्थ खेत में हल चल रहा था। हल के अग्रभाग से जोती गई भूमि से एक कन्या प्रकट हो गई। हल के अग्रभाग के फार को सीता कहते हैं। उससे उत्पन्न होने के कारण उस कन्या का नाम सीता रखा गया। वह मेरी अयोनिजा कन्या जब विवाह के योग्य हो गई तब मैंने यह निश्चय किया कि जो अपने पराक्रम से इस धनुष की प्रत्यंचा को चढ़ा देगा, उसी के साथ मैं इसका विवाह करूंगा। इस तरह इस कन्या को में वीर्यशुल्का बनाकर अपने घर में रखा है। इस अवसर पर श्री अच्युत प्रपन्न जी, जगन्नाथ जी, रंगनाथ जी, विकास जी, आचार्य अजय जी, प्रदुमन जी सहित सैकड़ों लोग उपस्थित रहे।