नारी मन के सच्चे पारखी थी शरतचंद्र
अररिया। बिहार बाल मंच, फारबिसगंज द्वारा द्विजदेनी स्मारक उच्च विद्यालय के प्रांगण में बांग्ला के अम
अररिया। बिहार बाल मंच, फारबिसगंज द्वारा द्विजदेनी स्मारक उच्च विद्यालय के प्रांगण में बांग्ला के अमर कथाकार सह सुप्रसिद्ध उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की 142वीं जयंती मनाई गई। जिसकी अध्यक्षता साहित्यकार हेमंत यादव शशि और संचालन विनोद कुमार तिवारी ने किया। कार्यक्रम में विभिन्न विद्यालयों के बच्चों ने भाग लिया। इस मौके पर शशि ने बताया कि बांग्ला के अमर कथा शिल्पी और उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय का जन्म 15 सितम्बर 1876 को हुगली जिले के देवानन्द पुर में हुआ था। वे अपने माता- पिता के नौ संतानों में से एक थे। वे बचपन से ही बड़े अनुशासनहीन थे।बहुधा पढ़ना- लिखना छोड़कर भाग जाते थे और लौटने पर पीटे जाते थे। उन्होंने 18 वर्ष की उम्र में बास नाम का पहला उपन्यास लिखा, लेकिन पसंद नहीं आने पर उसे फाड़ डाला। वे रवीन्द्रनाथ ठाकुर, बंकिमचंद्र चटर्जी, माइकल मधुसूदन दत्त आदि भारतीय साहित्यकारों के साथ- साथ प्रमुख अंग्रेजी साहित्यकारों की रचनाओं का निरन्तर अध्ययन करते रहे। इसी बीच उन्हें तीस रुपये की मासिक वेतन पर क्लर्क की एक नौकरी मिल गई और और वे वर्मा चले गए। वर्मा में भी उनका लेखन कार्य निरन्तर चलता रहा। उन्होंने लगभग 30 उपन्यास लिखे, जिनमें पण्डित मोशाय, बैकुंठेर बिल, मेज दीदी, दर्पचूर्ण, श्रीकान्त, अरक्षणीया, निष्कृति, मामलार फल, गृह दाह, शेष प्रश्न, दत्ता, देवदास, देना पावना आदि प्रमुख हैं। वहीं हर्ष नारायण दास एवं विनोद कुमार तिवारी ने बताया कि शरत जी की प्रारंभिक शिक्षा उनके मामा के यहां भागलपुर में हुई। इनके कुछ उपन्यासों पर आधारित ¨हदी ़िफल्में भी कई बार बनी है। जैसे परिणीता, बड़ी दीदी, मंझली दीदी, चरित्रहीन आदि। इसमें देवदास फिल्म का निर्माण तो तीन बार हो चुका है। उन्होंने बताया महात्मा गांधी ने कहा था-पाप से घृणा करो, पापी से नहीं। शरत जी ने गांधीजी के उपरोक्त कथन को अपने साहित्य में उतारा था। उन्होंने पतिता, दबी कुचली, प्रताड़ित नारी की पीड़ा को अपनी रचनाओं में स्थान दिया। उनके मन में नारियों के प्रति बहुत सम्मान था। वे नारी हृदय के सच्चे पारखी थे। ढाका विश्वविद्यालय ने उन्हें डीलिट् की उपाधि से सम्मानित किया था। उनकी दो पत्नियां थी, पहली शान्ति देवी जिनका निधन प्लेग से हो गया, उसके बाद 1910 में हिरणमोयी से उन्होंने शादी की। शरत जी का निधन 16 जनवरी1938 को लीवर कैंसर के कारण हो गया। वहीं बच्चों ने भी उनके जीवन पर प्रकाश डाला और बताया कि उनके पिता का नाम मोतीलाल चट्टोपाध्याय और माता का नाम भुवनमोहिनी देवी था।