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पहले जमाने में गांव के सामाजिक कार्यकर्ता थामते थे मुखिया की बागडोर

संसू सिकटी (अररिया) पहले जमाने के पंचायत चुनाव और आज के दौड़ के पंचायत चुनाव में काफ

By JagranEdited By: Published: Fri, 10 Sep 2021 12:26 AM (IST)Updated: Fri, 10 Sep 2021 12:26 AM (IST)
पहले जमाने में गांव के सामाजिक कार्यकर्ता थामते थे मुखिया की बागडोर

संसू सिकटी, (अररिया): पहले जमाने के पंचायत चुनाव और आज के दौड़ के पंचायत चुनाव में काफी अंतर है। आज का पंचायत चुनाव विधान सभा और लोकसभा चुनाव से कम नही है। पंचायत चुनाव के प्रत्याशी धनबल, बाहुबल तथा छ्द्म बल के सहारे कुर्सी हथियाने की जुगत में रहते हैं। जनता से झूठे वादे कर उन्हें गुमराह करते हैं। देखा जाए तो सेवा और विकास के सहारे चुनाव जितने की न किसी में क्षमता है और न ही साहस। नेता और मतदाता का संबंध दुकानदार और ग्राहक जैसी हो गई है। वही 30-35 साल पहले ऐसी स्थिति नही थी। उस समय केवल मुखिया और सरपंच का चुनाव होता था। गांव के बुद्धिजीवी व आर्थिक रूप से संपन्न व्यक्ति गांव के सामाजिक व्यक्ति को चुनाव लड़ने के लिए खड़ा करते थे, जिसमें नामांकन के अलावा और कोई खर्च नही होता था। अभी चुनाव लड़ना एवं जीत हासिल करना पूर्ण रूप से व्यवसाय बन चुका है। बिके मतदाता चुनाव जीतने वाले प्रत्याशी के पास विकास की बात करने का साहस नहीं कर पाता है। स्थिति शर्मनाक मोड़ पर पहुंच गई है। चुनाव के पूर्व मतदाता का विकास एवं चुनाव के बाद जीते प्रत्याशी का विकास यही चुनाव है। हालांकि इसके दुष्परिणाम भी सामने आने लगे हैं। युवा वर्ग इस चुनाव में मुद्दों पर मुखर हो रहे हैं। विगत 35 से 40 वर्ष पूर्व केवल मुखिया एवं सरपंच का चुनाव होता था। गांव के आर्थिक और सामाजिक रूप से मजबूत मुख्य व्यक्ति को ही ग्रामीण मतदाता ही मुखिया चुनाव लड़ने का आग्रह करते थे। नामांकन के बाद कोई खर्च उम्मीदवार नहीं करते थे। लेकिन आज उल्टी स्थिति है।

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---क्या कहते हैं बुद्धिजीवी---खौरागाछ के हरिलाल यादव कहते हैं कि उनके जमाने में 37 -38 साल पहले मुखिया जी चेक नहीं काटते थे। उन्हें घर से ही खर्च करना पड़ता था। इसलिए उस समय चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों को समर्थक मतदाता ही चंदा देते थे। गांव के पढ़े लिखे या फिर सामाजिक कार्यकर्ता ही चुनाव मैदान में आने की हिम्मत करते थे। चुनाव काफी साफ सुथरा होता था।

--ठेंगापुर के मायानंद मंडल बताते हैं कि उनके जमाने मे सरपंच का चुनाव भी होता था, लेकिन अधिकतर पंचायतों में निर्विरोध सरपंच हुआ करते थे। स्पष्टवादी एवं निडर व्यक्ति को ही सरपंच चुनाव लड़ने के लिए बाध्य करते थे। एक बात और कहने लायक है कि उस समय मतदाता बेईमान नहीं थे। आज तो दिन भर एक उम्मीदवार के साथ तो रात भर दूसरे के साथ। बिका हुआ मतदाता विकास की उम्मीद कैसे करेगा।

---कुआड़ी निवासी अशोक चौधरी कहते हैं कि विकास के मुद्दे पर मतदाता को जागरूक होने की जरूरत है। क्योंकि लोकतंत्र में प्रतिनिधि चुनने का सर्वोच्च शक्ति जनता के पास है।

--समाजसेवी प्रणव कुमार गुप्ता ने बताया कि आज पंचायत चुनाव की जो स्थिति है, मन करता है कि वोट का बहिष्कार करें, देशभक्तों ने अपनी कुर्बानी देकर राजतंत्र को हटाकर लोकतंत्र स्थापित किया है। वोट के बहिष्कार से अमर शहीदों की शहादत पर कुठाराघात होगा। असामाजिक, मूर्ख एवं जातपात के आधार पर विकास की बात बेइमानी है। प्रतिनिधि से स्वच्छ एवं स्वस्थ पंचायत निर्माण की बात करना खुद के साथ मजाक करना होगा। पहले मतदाता ईमानदार थे इसलिए प्रतिनिधि ईमानदार थे।


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