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जीएसटी नहीं बल्कि रॉयल्टी के चलते ऑटो कंपनियों पर पड़ रहा बोझ, जानें कैसे

विदेशी ऑटोमोबाइल कंपनियों की तरफ से टैक्स कम करने को लेकर सरकार ने कहा कि वह मूल कंपनियों को कम रॉयल्टी देकर अपने ऊपर का बोझ कम करें। (फोटो साभार दैनिक जागरण)

By Sajan ChauhanEdited By: Published: Fri, 18 Sep 2020 10:58 AM (IST)Updated: Fri, 18 Sep 2020 10:58 AM (IST)
जीएसटी नहीं बल्कि रॉयल्टी के चलते ऑटो कंपनियों पर पड़ रहा बोझ, जानें कैसे
जीएसटी नहीं बल्कि रॉयल्टी के चलते ऑटो कंपनियों पर पड़ रहा बोझ, जानें कैसे

नई दिल्ली, जागरण ब्यूरो। कुछ विदेशी ऑटोमोबाइल कंपनियों की तरफ से ज्यादा टैक्स बोझ डालने के आरोप को केंद्र सरकार ने एक सिरे से खारिज किया है। दुनिया के तमाम देशों में ऑटोमोबाइल सेक्टर पर पारंपरिक तौर पर ज्यादा टैक्स लगाया जाता है। जहां तक जीएसटी की दर (28 फीसद) का सवाल है तो यह पहले के वैट, उत्पाद शुल्क व अन्य शुल्कों की जोड़ से कम ही है। सरकार ने इन कंपनियों को उल्टा सलाह दी है कि उन्हें मैन्यूफैक्चरिंग लागत घटाने और विदेश स्थित अपनी मूल कंपनी को कम रॉयल्टी देना चाहिए। सरकार यह भी मानती है कि कई ऑटो कंपनियां बाजार की बदलती मांग के मुताबिक अपने उत्पाद को नहीं बदल पा रही हैं जिन कंपनियों ने ऐसा किया है उनके उत्पादों की मांग पहले से भी बढ़ी है।

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वित्त मंत्रालय के उच्चपदस्थ सूत्रों के मुताबिक कुछ लोग ऐसा आरोप लगा रहे हैं जैसे सिर्फ भारत में ही ऑटो सेक्टर पर ज्यादा कर लगाया जा रहा है। अगर जापान का ही उदाहरण लिया जाए तो वहां तीन तरह के टैक्स लिए जाते हैं। एक खरीदने के समय, दूसरा सालाना टैक्स और तीसरा टैक्स हर दूसरे वर्ष गाड़ी के निरीक्षण के आधार पर तय किया जाता है। यूरोपीय संघ में जीएसटी या वैट की दर 20 से 25 फीसद है और इसके अलावा स्थानीय कर देना पड़ता है जो अलग अलग होता है। ब्रिटेन में कार की उत्सर्जन क्षमता के आधार पर शून्य से 2175 पौंड सालाना का टैक्स लगता है। इसके अलावा सरचार्ज भी लगता है जो 150 पौंड से 375 पौंड हो सकता है। इसके अलावा दूसरे अन्य सभी देशों में पार्किग टैक्स देना पड़ता है जो भारत के मुकाबले काफी ज्यादा है। इसलिए यह कहना गलता है कि भारत में टैक्स ज्यादा होने की वजह से मांग प्रभावित हो रही है। भारत में ऑटोमोबाइल पर टैक्स ढांचा ज्यादा स्थाई है।

वित्त मंत्रालय का आकलन है कि भारत में कारों की मांग में कमी आने के पीछे कई वजहें हैं। एक तो वर्ष 2014 के बाद ऑटो बाजार काफी तेजी से बढ़ा है जिसकी वजह से 'बेस ईयर' काफी बढ़ गया है। एनबीएफसी संकट, ग्राहकों की पंसद में तेजी से होने वाला बदलाव, युवा वर्ग में कार खरीदने की इच्छा का कम होना, कड़े प्रदूषण नियम, इलेक्टि्रक कारों को बढ़ावा देने की वजह से कारों की बिक्री पर असर पड़ा है। इसके बावजूद जिन कंपनियों ने बाजार के बदलाव के मुताबिक मॉडल उतारे हैं उन्हें मंदी का सामना नहीं करना पड़ रहा है। कई कंपनियों ने बेहतर क्वालिटी की अपेक्षाकृत कम कीमत की कारें लांच की हैं और उनके पास मांग की कोई कमी नहीं है। किया मोटर्स, एमजीएम, जीप जैसी कंपनियों नई कंपनियों ने भारत में प्लांट लगाये हैं और उनकी कारें भी लोग पसंद कर रहे हैं। मारुति, हुंडई जैसी कंपनियों की विकास यात्रा भी जारी है। जब ग्राहकों के पास दर्जन भर से ज्यादा देशी-विदेशी ऑटो कंपनियों का विकल्प मौजूदा है तो वो फिर उनकी पसंद ही चलेगी। कारों की बिक्री भी लॉकडॉउन खत्म होने के बाद सामान्य हो रहा है। देश में मई, 2020 में 3 लाख वाहनों का उत्पादन हुआ था जो अगस्त, 2020 में बढ़ कर 18.59 लाख हो इकाई हो चुकी है यह अगस्त, 2019 के मुकाबले ज्यादा ही है। इस महीने पैसेंजर कारों की बिक्री (2.16 लाख) भी अगस्त, 2020 (1.86 लाख) से ज्यादा हुई है।

दो दिन पहले टोयोटा मोटर्स ने भारत में टैक्स की ज्यादा दर का आरोप लगाते हुए और निवेश करने से इनकार किया था। मारुति जैसी दिग्गज कंपनी भी पहले कह चुकी है कि भारत में कार रखने की कीमत बहुत ज्यादा होती है जिससे लोग अब कार नहीं खरीद रहे। भारतीय ऑटोमोबाइल उद्योग पिछले दो वर्षो से मंदी झेल रहा है। 


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