Move to Jagran APP

ईश्वर ने दिया था रातोंरात पहाड़ी काटने का आशीर्वाद, पर लोग कर बैठे चूक...

चीन सीमा से सटी दारमा घाटी हैं। मिथक है कि सतयुग में ईश्वर ने इनके पूर्वजों को रातोंरात पहाड़ी काटने में सक्षम होने का आशीर्वाद दे दिया था लेकिन वे चूक कर बैठे।

By Sunil NegiEdited By: Published: Sun, 21 May 2017 01:45 PM (IST)Updated: Mon, 22 May 2017 05:07 AM (IST)
ईश्वर ने दिया था रातोंरात पहाड़ी काटने का आशीर्वाद, पर लोग कर बैठे चूक...

हल्‍द्वानी, [कमलेश पांडेय]: जीवटता, जद्दोजहद, जुनून और जिजीविषा। इन शब्दों का असल अर्थ हमें दारमा घाटी पहुंच कर समझ में आया। चीन सीमा से सटी इस घाटी में बसे हैं 14 गांव। ऊपर बर्फ से लकदक हिमालय। उसकी कोख में बर्फीले तूफानों का सामना करते भारतीय हिमवीर। इन्हें मुफ्त का सीमा प्रहरी भी कह सकते हैं। जीना यहां कठिन चुनौती है। जिन मिथकों को सुनकर हम व्यंग्यात्मक मुस्कान बिखेरते हैं वही इनकी थाती है। हर बर्फीली चोटी से जुड़े कोई न कोई मिथक और पग-पग पर आस्था, शायद यही इनके जीने का सबसे बड़ा आसरा है।

loksabha election banner

हम अभी सेला गांव के पास थे। हमने मिथकों की ताकत यहीं महसूस की। थकान हावी थी। यह गांव नाबलिंग के सीजनल ग्लेशियर से थोड़ा पहले है। यहां की ऊंची चोटियां भी बर्फ से ढकी थीं, सो ठंड भी महसूस होने लगी। लंबे रास्ते के बाद यहीं एक दुकान दिखी। रुक गया। पूछा, खाने में क्या मिलेगा। जवाब मिला-दाल, भात। मोटे चावल का भात और गहत, भट, राजमा जैसी पहाड़ी दालों का मसालेदार मिश्रण। स्वाद फिर भी मस्त। हां मैगी भी यहां बनती दिखी। 

इसी गांव के निवासी हैं आइपीएस पुष्कर सिंह सैलाल। उनकी बहन आशा ग्वाल भी दुकान पर ही मिल गईं। बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ तो सेला गांव की चोटी के मिथक रोचक अंदाज में बताने लगीं। हमारी रुचि कहानी से अधिक उनकी आस्था और विश्वास की शक्ति पढ़ने में थी। पहाड़ी बोली में छाया या छांव को सेला कहते हैं। गांव के सामने की पहाड़ी के मिथक पर ही सेला गांव का वजूद है। 

इस पहाड़ी की वजह से गांव तक धूप नहीं पहुंचती। छांव की कैद में रहता है गांव। मिथक है कि सतयुग में ईश्वर ने इनके पूर्वजों को रातोंरात पहाड़ी काटने में सक्षम होने का आशीर्वाद दे दिया था लेकिन वे चूक कर बैठे। पहाड़ को ऊपर से काटने के बजाय जड़ से लगे काटने। रात बीत गई पर सफलता नहीं मिली। पहाड़ी काटने में जुटे ग्रामीण वहीं पत्थर बन गए। उन्हीं की आत्मा गांव की रक्षा करती है। हमारे लिए तो यह महज मिथक था लेकिन उनके यहां टिके रहने का बड़ा संबल। पत्थर बने पूर्वक रक्षा करते हैं, न बीमारी होने देते न गांव में आपदा।  

शिक्षालय है न चिकित्सालय

दारमा घाटी के गांवों में शिक्षालय है न चिकित्सालय। पढ़ाई के लिए बच्चों को लेकर परिवार का कोई न कोई सदस्य या तो धारचूला, पिथौरागढ़ या हल्द्वानी आ बसता है अथवा बच्चे शहरी रिश्तेदार के यहां शरण लेते हैं। ग्रामीण बीमार पड़ जाएं तो कुल देवता की मिन्नत और पूजा ही सबसे कारगर दवा है। इस बेल्ट की सबसे बड़ी भारतीय मंडी है धारचूला। दुर्गम, दुरूह 78 किमी की दूरी पर। रास्ता ऐसा कि हल्की बरसात में ही बंद हो जाता है। कम से कम पांच घंटे लगते हैं रास्ता खोलने में। ऐसे में गंभीर मरीज हो तो रास्ते में ही छुट्टी। 

संचार सुविधा नहीं, फिर भी हाथों में मोबाइल फोन

गांवों में तमाम लोगों के हाथ में मल्टीमीडिया मोबाइल फोन तो है लेकिन इस इलाके में नेटवर्क नहीं मिलता। चीन सीमा के निकट भारतीय कंपनियों के टावर लगाने की अब तक इजाजत नहीं मिल पाई है। सो संचार से भी कटा है यह क्षेत्र। गाना सुनने में होता है मोबाइल का इस्तेमाल। ग्रामीणों ने मोबाइल इस लिए खरीदा है ताकि घाटी से बाहर आने पर अपनों से जुड़ सकें। उन्हें भरोसा है कि देरसबेर उनके क्षेत्र भी भी टावर लग जाएंगे।

 यह भी पढ़ें: हनुमानचट्टी-कुंडखाल ट्रैक से भी होगा फूलों की घाटी का दीदार

 यह भी पढ़ें: विश्व प्रसिद्ध फूलों की घाटी के लिए रास्ता बनाने का काम शुरू

यह भी पढ़ें: कॉर्बेट पार्क ने भरी सरकार की झोली, कमाया नौ करोड़ रुपये


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.