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जांबाज विभूति कहते थे, देश के लिए खतरे मोल लेने से बढ़कर कोर्इ काम नहीं

मेजर विभूति शंकर ढौंडियाल के मन में कभी डर नहीं रहता था। वे हर परिस्थिति में लड़ने और देश की रक्षा करने कोतैयार रहते थे।

By Raksha PanthariEdited By: Published: Tue, 19 Feb 2019 03:01 PM (IST)Updated: Tue, 19 Feb 2019 09:19 PM (IST)
जांबाज विभूति कहते थे, देश के लिए खतरे मोल लेने से बढ़कर कोर्इ काम नहीं
जांबाज विभूति कहते थे, देश के लिए खतरे मोल लेने से बढ़कर कोर्इ काम नहीं

देहरादून, जेएनएन। देश की रक्षा को हमेशा तैयार रहते हैं जवान। जब भी कोर्इ देश की तरफ आंख उठाता है तो सीने पर गोली खाने को तैयार रहते हैं जवान। ऐसे ही एक जांबाज हैं मेजर विभूति शंकर ढौंडियाल, जिन्होंने भारत मां के लिए मौत को हंसते-हंसते गले लगा लिया।   

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पुलवामा में आतंकी हमले में शहीद हुए मेजर विभूति शंकर ढौंडियाल का जन्म 19 फरवरी 1985 को हुआ था। उनके पिता ओमप्रकाश ढौंडियाल का वर्ष 2012 में देहांत हो चुका है। वे वह कंट्रोलर ऑफ डिफेंस अकाउंट्स (सीडीए) में सेवारत रहे हैं। साथ ही मां सरोज और दादी देहरादून में रहती हैं। शहीद ढौंडियाल तीन बहनों के इकलौते भार्इ थे। उनकी बड़ी बहन पूजा के पति सेना में कर्नल हैं और दूसरी बहन अपने परिवार के साथ अमेरिका में रहती हैं। शहीद की छोटी बहन वैष्णवी दून इंटरनेशनल स्कूल में पढ़ाती हैं। उनका घर देहरादून के डंगवाल मार्ग पर स्थित है।  

सेंट जोजफ्स से हुर्इ दसवीं तक की पढ़ार्इ 

मेजर विभूति ने दसवीं तक की पढ़ाई देहरादून के प्रतिष्ठित सेंट जोजफ्स एकेडमी से की। जबकि उन्होंने साल 2000 में दसवीं उत्तीर्ण की। इसके बाद उन्होंने 12वीं की परीक्षा पाइनहॉल स्कूल से पास की। 

बचपन से ही देखा था फौजी बनने का ख्वाब 

मेजर विभूति की आंखों में फौजी बनने का ख्वाब बचपन में ही घर कर गया था। इस ख्वाब को पंख तब लगे, जब ओटीए के माध्यम से उन्होंने सेना में पदार्पण किया। हालांकि, यहां तक पहुंचने के पहले वह कई बार असफल हुए। बचपन में राष्ट्रीय मिलिट्री एकेडमी में प्रवेश न मिल पाने के बाद भी उनका प्रयास जारी रहा। इसके बाद एनडीए में भी उन्हें स्थान नहीं मिल पाया। फिर भी सेना में जाने का उनका जुनून कम नहीं हुआ और आखिरकार साल 2011 में ओटीए से पासआउट होकर वह सेना का अभिन्न अंग बन गए। इसी ख्वाब के साथ वह पूरी जिंदादिली के साथ जिये और हंसते-हंसते शहीद भी हो गए।

देश के लिए खतरे मोल लेने से बढ़कर कोर्इ काम नहीं

शहीद मेजर विभूति के पड़ोसी और बचपन के दोस्त मयंक खडूड़ी बताते हैं कि विभूति को हमेशा नेतृत्व करने का शौक था। वह कहते थे, सेना में देश की रक्षा के लिए नेतृत्व करने का अपना अलग ही अहसास होता है। जब भी वह छुट्टी पर दून आते, आतंकियों के खिलाफ अपने ऑपरेशन के किस्से रोमांच के साथ सुनाया करते। वर्तमान में 55-राष्ट्रीय राइफल्स का हिस्सा रहते हुए शहीद हुए मेजर विभूति की नजरों में डर नाम की कोई चीज नहीं थी। वह अपनी बेहद कड़ी सेवा को आनंद के साथ पूरा करते थे और उनकी पूरी दुनिया देश की रक्षा पर ही केंद्रित रहती। कहते थे कि इस राह में कदम-कदम पर डर का साया साथ रहता है और मौत कब अपने आगोश में खींच ले कुछ नहीं पता। मगर, विभूति को इस काम में बेहद रोमांच महसूस होता था। वह अक्सर कहते कि देश की खातिर खतरे मोल लेने से बढ़कर कोई काम भी तो नहीं है। 

मामा और बहनोई करते रहे प्रेरित 

मेजर विभूति के मामा और बहनोई भी सेना में हैं और इन दोनों से उन्हें काफी प्रेरणा मिली। यह भी एक बड़ा कारण है कि विफलताओं के बाद भी उन्हें देश सेवा की राह पर आगे बढ़ने में सफलता हासिल हो ही गई। 

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