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नाउम्मीदों की जिंदगी में जलाए आशा के दीप

सुकांत ममगाई, देहरादून: ठौर न ठिकाना। उस पर सिर पर मां-बाप का साया भी नहीं। आसमान छत और धरती बिछौन

By Edited By: Published: Sun, 21 Dec 2014 08:28 PM (IST)Updated: Mon, 22 Dec 2014 04:55 AM (IST)
नाउम्मीदों की जिंदगी में जलाए आशा के दीप

सुकांत ममगाई, देहरादून:

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ठौर न ठिकाना। उस पर सिर पर मां-बाप का साया भी नहीं। आसमान छत और धरती बिछौना। जिस बचपन में हाथ में किताबें और खिलौने होने चाहिए थे, वो जिम्मेदारी के बोझ तले दबे थे। न सिर्फ खुद की बल्कि छोटी बहन का पेट पालने की जिम्मेदारी। यह कहानी है राजकुमार की, जो राजधानी में सड़क पर ही पला बढ़ा। आठ साल पहले पेट भरने के लिए एस्लेहाल स्थित एक सिनेमाघर में दिन में खाने-पीने का सामान बेचकर गुजारा चलता था तो उसी सिनेमाघर की दीवार पर लगा प्लास्टिक रात काटने के लिए छत थी।

इसी दौरान राजधानी में निर्धन, बेसहारा और कूड़ा-बीनने वाले बच्चों को आखर ज्ञान देने की मुहिम में जुटी नीलू खन्ना की नजर इन बच्चों पर पड़ी। पहले तो दिक्कतें हुई, लेकिन फिर राजकुमार और उसकी बहन सुनीता का मन पढ़ाई में लग गया। गांधी पार्क में ही कक्षा चलने लगी। 2009 में नीलू खन्ना और विदेश से लौटी शैला बृजनाथ की पहल पर आसरा ट्रस्ट बना। फिर तो ऐसे बच्चों के लिए पढ़ाई के साथ ही उन्हें स्वरोजगार से जोड़कर मुख्यधारा में लाने की पहल हुई। इस पहल के तहत राजकुमार को उसकी इच्छानुरूप ब्लाक पेंटिंग का हुनर सिखाया गया। आसरा ट्रस्ट से मिले ज्ञान और हुनर की बदौलत राजकुमार बाद में बतौर सुपरवाइजर कार्य करने लगा। अब विकासनगर में रह रहे राजकुमार ने शादी भी कर ली है, जबकि उसकी बहन सुनीता सेंट एग्नेस स्कूल में पढ़ रही है।

न सिर्फ राजकुमार व सुनीता बल्कि मालती की जिंदगी भी आसरा की शरण में आने से बदल गई। मालती छह साल पहले कूड़ा बीनती थी, लेकिन उसकी पढ़ने में ललक थी। आसरा ट्रस्ट की सचिव नीलू खन्ना बताती हैं, जब गांधी पार्क में कक्षा चलनी शुरू हुई तो मालती ने रुचि दिखाई। उसने आखर ज्ञान तो सीखा ही, सिलाई-कढ़ाई में भी निपुणता हासिल की। मालती भी अनाथ है, लेकिन उस पर बहन और दो भाइयों की जिम्मेदारी भी है। पहले जिस कक्ष में चारों भाई-बहन रहते थे, उसका किराया आसरा ट्रस्ट देता था। लेकिन, अब स्थिति बदल गई है। शिक्षा के साथ ही सिलाई-कढ़ाई के हुनर से मालती खुद परिवार का जिम्मा संभाल रही है। भाई-बहन भी पढ़ाई कर रहे हैं। कमरे के किराये के लिए भी अब ट्रस्ट पर निर्भर नहीं रहना पड़ता।

आसरा ट्रस्ट की पहल से लकवाग्रस्त संतोष व राजू ने भी राजकुमार की तरह आसरा ट्रस्ट में पढ़ाई की, साथ ही ब्लाक पेंटिंग का कार्य सीखा। यही नहीं, श्याम, संतोष समेत अन्य बच्चों ने आसरा में शरण लेकर इसी प्रकार मुकाम हासिल किया और आज खुद के बूते खड़े हैं। साफ है कि इन बच्चों के लिए आसरा ट्रस्ट किसी फरिश्ते से कम नहीं है।

'आसरा' ट्रस्ट जब 2009 में शुरू हुआ तक उसके पास बच्चों की संख्या महज 35 थी, जो अब बढ़कर 700 पार कर गई है। भिक्षावृत्ति, बालश्रम, गरीबी, लाचारगी और अज्ञानता के अंधकार से निकाल 'आसरा' इनमें साक्षरता की अलख जगा रहा है। ये बच्चे अब न सिर्फ जीने का सलीका सीख गए हैं, बल्कि उन्हें भविष्य का आधार भी मिल गया है। पिछले साल ही आसरा ने 145 बच्चों का स्कूलों में दाखिला कराया।

मध्याह्न भोजन भी

आसरा की चेयरमैन शैला बताती हैं कि संस्था ने बाद में गरीब व बेसहारा बच्चों के लिए स्ट्रीट स्मार्ट योजना की शुरुआत की। इसके तहत छोटे बच्चों को घर पर ही पढ़ाया जाता है। जबकि, बाकी की क्लास चुक्खू मोहल्ला स्थित रैन बसेरा में लगती है। बच्चों के लिए बकायदा मध्याह्न भोजन की भी व्यवस्था है।


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