महासमर-चोटी पर चुभता सवाल
केदार दत्त, देहरादून
उत्तराखंड में कहावत प्रचलित है कि 'पहाड़ का पानी और जवानी कभी यहां के काम नहीं आए'। राज्य बने 13 साल का अरसा हो चुका है, लेकिन यह आज तक रत्तीभर भी बदलाव नहीं आया है। पलायन के मामले में तस्वीर ऐसी ही है। लोकसभा चुनाव की बेला के मद्देनजर नेताजी जनता की चौखट पर हैं, लेकिन जनता तो सवाल करेगी ही। गांवों में न हलक तर करने को पुख्ता इंतजाम हो पाए हैं और न बिजली, सड़क, स्वास्थ्य, शिक्षा व रोजगार के। अर्थव्यवस्था अभी भी मनीऑर्डर पर टिकी है। ऐसे में पहाड़ के गांव खाली नहीं होंगे तो क्या होगा। गत वर्ष आई आपदा के बाद यह प्रश्न और भी अहम हो गया है। आखिर, सवाल बेहतर भविष्य का जो है। उम्मीद थी कि अलग राज्य बनने के बाद पलायन की यह रफ्तार थमेगी, लेकिन यह और तेजी से बढ़ी है। आंकड़े इसे तस्दीक करते हैं। खासकर टिहरी, पौड़ी और अल्मोड़ा लोकसभा सीटों वाले क्षेत्रों में तो हालात चिंताजनक हैं। और तो और यह जानते हुए भी कि अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं से लगे उत्तराखंड में गांवों का खाली होना आंतरिक और बाह्य सुरक्षा के लिहाज से बेहद खतरनाक है, लेकिन न राज्य सरकारों ने इसे गंभीरता से लिया और न संसद में बैठे हमारे प्रतिनिधियों ने। इस परिदृश्य में जन के सवाल लाजिमी हैं कि पहाड़ से जुड़े इस अहम सवाल की अब तक अनदेखी क्यों, पलायन कब थमेगा और इसे थामने के लिए अब तक किया क्या।
दशकों से बात उठ रही कि पहाड़ के सुदूरवर्ती गावों में विकास की किरणें नहीं पहुंच पा रहीं, लेकिन अभी तक इस दिशा में गंभीर पहल नहीं हुई। उत्तराखंड राज्य की मांग के पीछे भी यही मुख्य अवधारणा थी, मगर राज्य बनने के बाद भी विषम भूगोल वाले पर्वतीय क्षेत्र के गांवों की सूरत नहीं बदली। रोजगार व सुविधाओं का घोर अभाव लोगों को गांव छोड़ दूसरे स्थानों में बसने को मजबूर कर रहा है। स्थिति यह है कि पहाड़ के गांवों की अर्थव्यवस्था आज भी मनीआर्डर पर ही केंद्रित है। रोजगार के अवसर सृजित करने को 2008 में पर्वतीय औद्योगिक प्रोत्साहन नीति बनी, लेकिन उद्योग पहाड़ नहीं चढ़ पाए। अन्य कदम सिर्फ भाषणों तक ही सीमित रहे। बुनियादी सुविधाओं की बात करें तो पहाड़ के तमाम गांव ऐसे हैं, जहां से मरीज को अस्पताल ले जाने को रोड हेड तक पहुंचते-पहुंचते वह रास्ते में दम तोड़ देता है। स्वास्थ्य के साथ ही पानी, बिजली, सड़क, शिक्षा जैसी अन्य सुविधाओं का सूरतेहाल किसी से छिपा नहीं है।
इस सूरतेहाल में पहाड़ के गांव खाली नहीं होंगे तो क्या होगा। प्रश्न भविष्य को संवारने का है। ऐसे में सूबे के शहरी क्षेत्रों में आबादी का दबाव खासा बढ़ गया है और आंकड़े इसे तस्दीक करते हैं। पलायन के चलते पौड़ी व अल्मोड़ा जिले में आबादी घटी है, जबकि अन्य जिलों में भी जनसंख्या वृद्धि दर नकारात्मक होने के कगार पर है। दूसरी ओर देहरादून, हरिद्वार, नैनीताल, ऊधमसिंहनगर में जनसंख्या का दबाव बढ़ा है। इस सबके बावजूद पलायन थामने को अभी तक कोई पहल होती नजर नहीं आ रही। यह बात दीगर है कि राज्य में सत्तारूढ़ रहे दलों के घोषणापत्रों में पलायन का मसला शामिल रहा, लेकिन धरातल पर कुछ नहीं हुआ। यही नहीं, संसद में राज्य का प्रतिनिधित्व करने वालों ने भी शायद ही इसे की गंभीरता से लिया हो। अब जबकि लोकसभा चुनाव के मद्देनजर राजनीतिक दल और प्रत्याशी जनता की चौखट पर हैं तो जनता सवाल करेगी ही कि उन्होंने पलायन थामने को क्या किया। क्यों नहीं उन्होंने इस दिशा में गंभीर रूख अपनाया।
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पलायन की दर 50 फीसद
अंतर्राष्ट्रीय एकीकृत विकास केंद्र (ईसीमोड) के अध्ययन पर गौर करें तो बागेश्वर जिले के कांडा, चमोली के देवाल और टिहरी के प्रतापनगर ब्लाकों के गांवों से पलायन दर करीब 50 फीसद पहुंच गई है। इनमें 42 फीसद ने रोजगार, 26 फीसद ने शिक्षा, 2 फीसद ने कारोबार और 30 फीसद लोगों ने मूलभूत सुविधाओं के अभाव में पलायन किया।