द्वारिका में ही मिलती है 'सरंकार' से वीर रस की हुंकार
संवाद सहयोगी, द्वाराहाट : कत्यूर काल की 'कौतिक' परंपरा ही है जो पौराणिक द्वारिका को देवभूमि की सबसे
संवाद सहयोगी, द्वाराहाट : कत्यूर काल की 'कौतिक' परंपरा ही है जो पौराणिक द्वारिका को देवभूमि की सबसे प्राचीन सांस्कृतिक व आध्यात्मिक नगरी का दर्जा देती है। इस द्वारिका ने स्याल्दे बिखौती मेले में विविध कलाओं, शैली व संगीत विधाओं को जिस तरह एक माला में पिरोए रखा वह अद्वितीय है। वीर रस से ओतप्रोत युद्ध कौशल पर आधारित 'सरंकार नृत्य' भी उन्हीं में से एक है, जो छोलिया से बिल्कुल भिन्न दक्षिण में केरल के मार्शल आर्ट की पुरातन विधा से मेल खाता है। पूरे हिमालयी प्रांत में 'सरंकार नृत्य' केवल स्याल्दे मेले के अलावा और कहीं नहीं होता।
'सरंकार नृत्य' यानी विभिन्न रसों से भरी एक कला। जिसमें प्रतिद्वंद्वी पर प्रहार के वक्त संयम व एकाग्रता मिलती है तो चतुराई का पुट भी। भाव भंगिमाओं में छिपा एक मनोविज्ञान जो आंखों, ललाट की लकीरों, तमतमाए गालों के जरिए विरोधी पर हॉवी हो जाए। वहीं मानसिक एवं शारीरिक स्फूर्ति से जुड़ा विशुद्ध युद्ध कौशल पर आधारित नृत्य। छोलिया नृत्य से बिल्कुल भिन्न इस कला में रणभेरी रणबांकुरों को मोर्चा लेने तो नगाड़े की गर्जना व दमाऊ की टंकार रोम-रोम में वीर रस भर देती है।
अहम पहलू कि नगाड़े के तीन व चार ताल पर कदमों की सटीक चहलकदमी के बीच तलवारबाजी खास आकर्षण होता है। बीच-बीच में दमाऊ की टंकार योद्धाओं में ताजगी देती है तो अगले पल दमाऊ की गर्जना व रणभेरी जोश देता है। जानकारों की मानें तो सरंकार नृत्य कुमाऊं-गढ़वाल में और कहीं नहीं होता। ऐतिहासिक स्याल्दे मेला व सरंकार नृत्य को एक-दूसरे का पूरक माना जाता है।
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नगाड़े की ताल पर पूरा युद्ध
'सरंकार' नृत्य पूरी तरह नगाड़े की ताल पर निर्भर है। खास बात कि योद्धा आमने-सामने नहीं बल्कि विपरीत दिशा में यानी एक दूसरे की ओर पीठ कर मोर्चाबंदी करते हैं। नगाड़े के तीन व चार ताल के आधार पर ही तलवारों के ताबड़तोड़ प्रहार व ढाल से बचाव को बेजोड़ नजारा पेश होता है। 50-100 साल पहले तक स्याल्दे बिखौती का 'सरंकार' नृत्य में केरल की प्राचीन मार्शल आर्ट विधा की छाया मिलती थी। नगाड़े की चढ़ती-उतरती गर्जना के साथ योद्धा हवाई हमलों से हैरत में डाल देते थे। मगर अब वक्त के साथ इस पुरातन कला में भी काफी बदलाव आ गया है।