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बस्ते के बोझ तले सिसक रहा बचपन

सिद्धार्थनगर : महाराष्ट्र के चंद्रपुर शहर स्थित एक विद्यालय के दो बच्चों की ओर से भारी बस्तों के तं

By Edited By: Published: Wed, 24 Aug 2016 10:38 PM (IST)Updated: Wed, 24 Aug 2016 10:38 PM (IST)
बस्ते के बोझ तले सिसक रहा बचपन

सिद्धार्थनगर : महाराष्ट्र के चंद्रपुर शहर स्थित एक विद्यालय के दो बच्चों की ओर से भारी बस्तों के तंग आकर भूख हड़ताल करने का निर्णय लिया है। उनके इस निर्णय के बाद जनपद में भी बस्ते के बोझ तले सिसक रहे बचपन के बारे में सोचने व लिखने को विवश कर दिया है। आरटीई में प्रावधान न होने व इसके लिए कोई ठोस कानून न बनने के कारण मनमाना कर रहे स्कूलों पर शिकंजा कसने की गुंजाइश दूर-दूर तक नजर नहीं आ रही है। बच्चे की उम्र तीन वर्ष और उसके स्कूल बैग का वजन उससे भी कहीं ज्यादा है। अपने बस्ते को पीठ पर उठाए झुकी कमर से धीमी दौड़ लगाते हुए बच्चे स्कूल पहुंच रहे है। अशिक्षा को दूर भगाने के लिए समाज के प्रत्येक वर्ग के लोग अपने बच्चों को शिक्षित बनाने में लगे है। संपन्न लोग अपने बच्चों को कान्वेट की शिक्षा दिलाने में ही तरक्की समझते है। इसके चलते लोग निजी स्कूलों में अपने बच्चों का दाखिला कर देते है। जहां से उस बच्चे की उम्र एवं सामर्थ से तीन गुना वजन की पुस्तकें उन्हे थमा दी जाती है। एक-एक पुस्तक पर तीन-तीन कापी होती है। स्कूल से दूर रह रहे अभिभावक स्वयं स्कूल रिक्शा या स्कूल बस से अपने बच्चे को भेजते है। जो सवारी से उतर कर अपनी पीठ पर बस्ता लादे झुकी कमर से कक्षा में पहुंचते है। वहीं कुछ बच्चे स्कूल तक पैदल सफर करते हैं। उनकी चाल में भी तेजी होती है क्योंकि प्रार्थना के समय नहीं पहुंचे तो मार पड़ेगी। इससे बच्चे इतने थक जाते है। जिले में सर्वाधिक परेशानी सीबीएसई व आईसीएसई पद्धति से संचालित स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की होती है। तीन से चार मंजिला तक पहुंचने में पसीने-पसीने हो जाना पड़ता है। बस्ते के बोझ से बच्चों पर शारीरिक व मानसिक कुप्रभाव पड़ता है। शारीरिक प्रभाव का मतलब बच्चा घर में पहुंचते ही थकान की बात कहता है। किताबों के दबाव में मानसिक विकास संभव ही नहीं है। खेलकूद का मौका नहीं मिलता, जिसमें शारीरिक व मानसिक विकास बाधित हो जाता है। बाल रोग विशेषज्ञ डा. संजय चौधरी ने कहा कि सर्वांगीण विकास के लिए बस्तों का बोझ कम होने के साथ ही खेलकूद के लिए समय मिलना अत्यंत आवश्यक है। जिलाधिकारी नरेन्द्र शंकर पांडेय ने कहा कि स्कूलों में बच्चों पर बस्ते का क्षमता से अधिक होना निश्चय ही ¨चताजनक है। इस दिशा में शिक्षा विभाग के अधिकारियों के साथ बैठक कर इस मुद्दे पर सकारात्मक व ठोस पहल करेंगे। संबंधित स्कूलों के प्रबंधकों व प्रधानाचार्यों से संवाद स्थापित करने के लिए अफसरों को निर्देशित करेंगे, जिससे बच्चों के शरीर पर पड़ने वाले कुप्रभाव से निजात दिलाया जा सके। जिला विद्यालय निरीक्षक सोमारू प्रधान का कहना है कि महाराष्ट्र के चंद्रपुर के एक स्कूल के दो बच्चों द्वारा भारी बस्ते से तंग आकर भूख हड़ताल करने संबंधी समाचार पढ़ा हूं। यह निश्चय ही दुखदायी है। सबसे ज्यादा सीबीएसइ व आइसीएसइ से जुड़े स्कूलों में समस्या देखने को मिल रही है। अब तक कोई हस्तक्षेप करने का कोई निर्देश व आदेश नहीं है। इसके बावजूद उच्चाधिकारियों से संपर्क कर इस दिशा में ठोस पहल करेंगे।

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जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी अर¨वद कर पाठक ने कहा कि बच्चों पर बस्ते का बोझ वास्तव में किसी भी स्तर से बेहतर नहीं है। बच्चों के समग्र विकास में सबसे बड़ा बाधक है। बेसिक शिक्षा परिषद द्वारा संचालित प्राथमिक व पूर्व माध्यमिक विद्यालयों में बच्चों पर बस्ते की बोझ न के बराबर है। जहां तक बेसिक शिक्षा विभाग से मान्यता प्राप्त प्राइवेट स्कूलों के बारे में जानकारी लेकर आवश्यक कदम उठाने का प्रयास करूंगा। चन्द्र प्रकाश श्रीवास्तव, पूर्व प्रधानाचार्य का कहना है कि राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसंधान परिषद को सीबीएससी समन्वय की पुस्तकों का बोझ को कम करने की पहल करनी चाहिए। मासूम बच्चे बस्तों के बोझ उठाकर कम उम्र में ही कमर जनित बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। छात्र भी बस्ते के बोझ तले दबे हुए हैं। इस दिशा में शिक्षा विभाग समेत आला अफसरों को हस्तक्षेप करने की पहल करने को आगे आना चाहिए।


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