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आंखों के 'नूर' हिंदी के 'कोहिनूर'

By Edited By: Published: Sun, 14 Sep 2014 12:31 AM (IST)Updated: Sun, 14 Sep 2014 12:31 AM (IST)
आंखों के 'नूर' हिंदी के 'कोहिनूर'

मुजफ्फरनगर : हिंदी के पुजारी रहे, माटी के लाल भी। साहित्य को लहू से सींचा, मातृभूमि के लिए सांस ली। बुलंदी के सपने सजाए तो दिल में मिट्टी के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा पाला। जिले की आंखों के ये नूर, हिंदी के 'कोहिनूर' से कम नहीं हैं। तभी तो यहां जन्में साहित्यकारों ने फलक पर राष्ट्रभाषा के साथ जिले का भी नाम लिख दिया। इन गलियों ने आवारा मसीहा की आवारगी देखी तो दलित साहित्य सम्राट का संघर्ष भी।

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मुजफ्फरनगर अब भले ही क्राइम के लिए कुख्यात हो, लेकिन यहां की कलम के हस्ताक्षर भी अमिट हैं। बात शुरू करें तो जुबां पर पहला नाम 'आवारा मसीहा' का आता है। मीरांपुर में जन्में विष्णु प्रभाकर आरंभिक शिक्षा के बाद हिसार चले गए। प्रेमचंद, यशपाल, जैनेंद्र और अज्ञेय जैसे महारथियों के सहयात्री रहकर अपनी अलग पहचान बनाई। शरत चंद्र की जीवनी 'आवारा मसीहा' छपी तो साहित्य में उनका नाम सुनहरे अक्षरों से लिख गया। मुजफ्फरनगर आते रहे। एक बार उन्होंने कहा भी था कि, 'ऐ मेरी मिट्टी, तुझे अभी और विष्णु प्रभाकरों को जन्म देना है।' अब इनका घर सत्संग भवन बन चुका है। बात आगे बढ़ाएं तो साहित्यकार गिरिराज किशोर का माटी से मोह उनकी रचनाओं में साफ छलकता है। एसडी कालेज में पढ़े पद्मश्री गिरिराज के चर्चित उपन्यास 'ढाई घर' में मुजफ्फरनगर के रइसों की कहानी है, जबकि उनकी अन्य रचनाओं में डीएवी कालेज, टाऊन हॉल और कई जगहों का जिक्र है। उनके मित्र साहित्यकार प्रो.जेपी सविता बताते हैं कि लिखने का शौक शुरू से था। यह उनका घर है। कई बार आए। साथी उन्हें कृष्णा मेनन कहते थे। उनके उपन्यास ढाई घर और गांधी जी के दक्षिण अफ्रीका के अनुभवों पर लिखा महाकाव्य 'पहला गिरमिटिया' अंग्रेजी में भी अनुवादित हो चुके हैं।

कथाकार, व्यंग्यकार और उपन्यासकार से.रा.यात्री जिले के जड़ौदा में जन्में साहित्य के वह नगीने हैं जिनका दर्जा बहुत अव्वल है। 1971 में दूसरे चेहरे नामक कथा संग्रह से शुरू हुई उनकी साहित्यिक यात्रा अभी भी जारी है। फिलहाल वह गाजियाबाद में रहते हैं, लेकिन उनके भाई मुजफ्फरनगर में हैं। हाल ही में एक पुस्तक के विमोचन पर से.रा.यात्री आए तो यहां से जुड़ीं यादों को याद कर भावुक हो गए। दलित साहित्य के अमिट हस्ताक्षर ओमप्रकाश वाल्मीकि जिले के गांव बरला में जन्में। बचपन पर बीती सामाजिक एवं आर्थिक कठिनाई उनके साहित्य में मुखर हुई। उनका मानना रहा कि दलितों का लिखा साहित्य ही असली दलित साहित्य है, क्योंकि दलित ही दलित की पीड़ा को बेहतर समझ अनुभव की प्रामाणिक अभिव्यक्ति कर सकता है। उनकी आत्मकथा 'जूठन' दलित चेतना का दहकता दस्तावेज है, जिसमें जिले में गुजरे बचपन के कई किस्से हैं।

संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय काशी के पूर्व कुलपति आचार्य पंडित सीताराम चतुर्वेदी, कथाकार भीमसेन त्यागी और कवि कुबेर दत्त के जिक्र के बिना हिंदी और साहित्य के साथ जनपद की सहयात्रा अधूरी है। साहित्य के श्लाकापुरुष आचार्य पंडित सीताराम चतुर्वेदी काशी में जन्में जरूर, लेकिन उनके वानप्रस्थ आश्रम का सारा समय मुजफ्फरनगर में ही बीता। उधर, गांव बिटावदा में जन्में कवि कुबेर दत्त का नाम हिंदी साहित्य जगत में सम्मानित है। बुढ़ाना में जन्में कथाकार भीमसेन त्यागी के सांस में भी मिट्टी सुगंध बसी थी। बुढ़ाना को याद कर उन्होंने एक बार कहा था कि, 'दिल्ली में दफ्तर की मशीनी जिंदगी थी, बसों की गहमागहमी, घर-गृहस्थी के झमेले और चंद यार-दोस्त, लेकिन ये सब मिलकर भी उस शून्य को पूरा न कर पाते, जो कस्बे की चौपाल के न होने से बराबर सालता।' भीमसेन त्यागी नहीं रहे, लेकिन उनका पैदायशी स्थान आज भी बुढ़ाना में मौजूद है। जिले के कवि रघुनाथ प्यासा को साहित्यकार-संपादक धर्मवीर भारती ने धर्मयुग में प्रकाशित किया। बहरहाल, मुजफ्फरनगर साहित्य के श्लाकापुरुषों की सांसों में सदा रचा-बसा रहा, लेकिन इनकी यादें सहेजने के लिए सरकारी स्तर पर इंतजामात सिफर हैं। हां, स्थानीय साहित्यिक संस्थाएं जरूर इनके सपनों को संजोने की जद्दोजहद में मुरझाती बेल को सींच रहे हैं।


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