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बर्फ में दबी जिंदगी के मसीहा बने 'डॉट' व 'मिशा'

अमित तिवारी, मेरठ : मनुष्य के सबसे अच्छे दोस्त श्वान ही होते हैं। श्वानों ने एक बार फिर यह सिद्ध

By Edited By: Published: Fri, 12 Feb 2016 02:02 AM (IST)Updated: Fri, 12 Feb 2016 02:02 AM (IST)
बर्फ में दबी जिंदगी के मसीहा बने 'डॉट' व 'मिशा'

अमित तिवारी, मेरठ :

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मनुष्य के सबसे अच्छे दोस्त श्वान ही होते हैं। श्वानों ने एक बार फिर यह सिद्ध कर दिखाया है। सियाचिन में बर्फीले तूफान का शिकार हुई भारतीय सेना की टीम के लांसनायक हनुमंथप्पा कोप्पड़ को बर्फ से जीवित निकालने में श्वान ने अहम भूमिका निभाई है। भले ही देश के सपूत ने अपनों को अलविदा कह दिया हो, लेकिन आर्मी डॉग यूनिट के इन श्वानों ने एक बार फिर बेहतरीन प्रशिक्षण का उदाहरण पेश किया है। भारतीय सेना के डेढ़ सौ जवानों के दस्ते के साथ बर्फ में फंसे जवानों के बचाव में गए दल में इन श्वान जांबाजों ने पांच दिन तक बर्फीली वादियों की खाक छानी और करीब 35 फिट बर्फ के नीचे जिंदगी को सूंघ लिया।

ये हैं एआरओ डॉग

बचाव दल के साथ गई टीम में मादा श्वान 'मिशा' व नर श्वान 'डॉट' तैनात थे। ये दोनों लेब्राडोर प्रजाति के हैं। इनका प्रशिक्षण एवलांच रेस्क्यू ऑपरेशन (एआरओ) के लिए किया गया है। इन्हें आर्मी डॉग यूनिट का एआरओ डॉग कहा जाता है। ये दोनों या इस तरह के अन्य श्वान विशेषतौर पर बर्फीले स्थानों पर तैनात यूनिटों के साथ तैनात किए जाते हैं। इन दोनों की पोस्टिंग भी लेह-लद्दाख में थी।

आरवीसी में हुए प्रशिक्षित

इनकी ट्रेनिंग मेरठ छावनी स्थित आरवीसी सेंटर एंड कालेज के डॉग ट्रेनिंग स्कूल में हुई है। मिशा का जन्म 16 अक्टूबर 2009 को और डॉट का जन्म 8 नवंबर 2012 को हुआ था। इन दोनों की प्राथमिक ट्रेनिंग मेरठ में ही हुई थी। इसके बाद एडवांस ट्रेनिंग के लिए गुलमर्ग की बर्फीली जगहों पर भेजा गया। ट्रेनिंग के बाद दोनों लेह-लद्दाख में तैनात हैं।

ऐसे होती है ट्रेनिंग

डॉग ट्रेनिंग स्कूल में जन्म के छह महीने के बाद इनकी ट्रेनिंग शुरू होती है। शुरुआती 12 सप्ताह अर्थात तीन महीने इन्हें फौजी तौर-तरीके अर्थात अनुशासन सिखाया जाता है। इसी दौरान इनकी विशेषता को भी परखा जाता है। विशेषता के अनुरूप इनके प्रशिक्षण को विशेषज्ञता की ओर मोड़ा जाता है। दूसरे चरण की फील्ड ट्रेनिंग गुलमर्ग की बर्फीली पहाड़ियों में होती है। बेसिक ट्रेनिंग में इन्हें पंजों से जमीन खोदना सिखाया जाता है, जिससे इनके पंजे पहले से मजबूत हो जाते हैं। 36 सप्ताह के प्रशिक्षण के बाद इन्हें विभिन्न स्थानों पर तरह-तरह के टेस्ट से गुजरना पड़ता है। करीब दो वर्ष की आयु में इन्हें विशेषज्ञता के अनुरूप डॉग यूनिट को सौंप दिया जाता है। एआरओ डॉग नौ वर्ष की उम्र तक फील्ड में कार्य करने के बाद सेवानिवृत्त होते हैं। इस दौरान भी बीच-बीच में इन्हें प्रशिक्षित किया जाता है।

डिगे नहीं पूरे पांच दिन

तीन फरवरी को हुई घटना के बाद पहुंची रेस्क्यू टीम के साथ ये श्वान पांच दिनों तक बर्फ में डटे रहे। वे आगे चलते और जवान पीछे-पीछे उनके इशारों को समझते रहते। इन्हें भी जवानों की भांति ठंड से बचने के कपड़े व किट पहनाए गए। घटनास्थल पर दिन का तापमान माइनस 30 तो रात का तापमान माइनस 55 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है। इन हालात में भी न जवान डिगे और न ही उनके इन दोस्तों ने आगे बढ़ना बंद किया।


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