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सुरों की आकाशगंगा में उभरा ध्रुपद का ध्रुवतारा

मेरठ : भारतीय संगीत की सरिता ने मेरठ की सूखती सांस्कृतिक उर्वरता में नवजीवन जगा दिया। स्पिक मैके और

By Edited By: Published: Tue, 31 Mar 2015 02:13 AM (IST)Updated: Tue, 31 Mar 2015 02:13 AM (IST)
सुरों की आकाशगंगा में उभरा ध्रुपद का ध्रुवतारा

मेरठ : भारतीय संगीत की सरिता ने मेरठ की सूखती सांस्कृतिक उर्वरता में नवजीवन जगा दिया। स्पिक मैके और एमआइईटी के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित कार्यक्रम के चौथे दिन ध्रुपद गायन की गंभीर प्रस्तुति ने मन वीणा के तारों को झंकृत कर दिया। वासिफुद्दीन डागर ने छात्रों को न सिर्फ धु्रपद गायन शैली के अलंकारों से परिचित कराया, बल्कि बाद में उन्हें स्वरों के आरोह-अवरोह में भी बहा लिया। रसखान एवं सूरदास के पदों को बंदिशों में पिरोकर ध्रुपद साधक ने अलापकारी का भरपूर चमत्कार दिखाया। शब्द गौण हो गए, और भावों का संसार नए प्रतिमानों को छूता रहा।

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धु्रपद गायकी के मूर्धन्य साधक वासिफुद्दीनडागर ने सोमवार को विरासत-2015 को समर्पित अपनी प्रस्तुति दी। सबसे पहले उन्होंने श्रोताओं को आलाप का शास्त्र बताया। इसके बाद अलापकारी का उत्कर्ष छुआ। वक्त के साथ सुरों की गहराई और फैलाव बढ़ता रहा, और पूरा हाल शास्त्रीय नाद से गूंज उठा। इसके बाद रसखान के पद 'मानुष हों तो वही रसखान' को राग कांबोजी पर पेश किया। पखावज के साथ जुगलबंदी के बीच सुरों के अनन्य द्वीप तैरते हुए नजर आए। रागों की जटिलता को सुलझाते हुए वह कई बार सरल अलंकारों की तरफ भी लौटे। अलाप गहराने के साथ ही शब्दों का संसार विस्मृत होने लगा, और इसकी जगह भावों का रंग भर गया। उन्होंने भारतीय संगीत शास्त्र का अनुशासन से पालन करते हुए ध््राुपद का हर रंग उभारा। गमक का विशेष प्रयोग कर श्रोताओं को गहरी विधा से रूबरू कराया। रसखान के पद में उन्होंने सुरों की साधना से ब्रज की गलियों और भगवान कृष्ण के हर रूप को साकार किया। विलंबित ताल से शुरू हुआ गायन द्रुत ताल में भी खूब जमा। पदमश्री डागर ने अहीर भैरव और धमार ताल पर आधारित 'चलो सखी ब्रज रजे' राग बागेश्री पर आधारित 'नंदन को नंदन है दुख कंदन को' चौताल में पेश किया। प्रेक्षागृह में घंटे भर तक बही सुरों की बयार ने श्रोताओं को अभिभूत कर दिया। भागदौड़ की जिंदगी एवं कानफोड़ू संगीत से दूर श्रोताओं ने शास्त्रीय संगीत के दैवीय एहसास को जीभर कर जिया। कार्यक्रम को सफल बनाने में डा. अजय सिंह, सुचेता सहगल, धर्मेन्द्र शर्मा, विदित शुक्ला और संस्कृति मंत्रालय का विशेष योगदान रहा।


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