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सांप्रदायिक सद्भाव की खुशबू से सराबोर मेला नौचंदी

By Edited By: Published: Tue, 22 Apr 2014 09:16 PM (IST)Updated: Tue, 22 Apr 2014 09:16 PM (IST)
सांप्रदायिक सद्भाव की खुशबू से सराबोर मेला नौचंदी

मेरठ : अपराध, दंगे और वैमनस्य की त्रिआयामी छवि समेटे मेरठ की धवल पताका नौचंदी मेले के जरिए फहरा रही है। यहां उत्तर भारत का ऐतिहासिक मेला नौचंदी सांप्रदायिक सौहार्द का प्रतीक है जो आज भी सद्भाव की खुशबू फैला रहा है। कौमी एकता की मिसाल इस मेले में बड़ी संख्या में हिन्दू-मुस्लिम और अन्य धर्मो के लोग मां चंडी मंदिर व बाले मियां की मजार पर होने वाले कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं।

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होली के बाद एक रविवार छोड़ दूसरे रविवार को मेले का पारंपरिक उद्घाटन होता है। मेले का इतिहास तो अत्यंत प्राचीन है। जैसा कि नाम से ही ज्ञात होता है, नौचंदी (नवचण्डी) का मेला चण्डी देवी के नाम से आरंभ हुआ और अपने आप में बहुत पुराना है। चण्डी भागवत में मेरठ की चण्डी को सिद्धिदात्री बताया गया है। नौचंदी क्षेत्र में जहां चण्डी देवी का मंदिर स्थित है, उस स्थान पर सती भगवती के शरीर के अरु भाग निपात हुए।

मेले की परंपरा और स्वरूप

नवचण्डी मेले के नाम से देशभर में विख्यात इस मेले का नाम जनभाषा में नौचंदी कब पड़ा, इसका तो निश्चित प्रमाण नहीं, लेकिन कहा जाता है कि हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रतीक रूप में इस मेले की शुरुआत 17वीं शताब्दी में 1672 ई. के लगभग हुई। बताते हैं, 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से पहले यह मेला केवल एक रात के लिए होता था। फिर दो दिन का हुआ। 1880 तक मेला छोटे स्वरूप का रहा। एक सप्ताह तक यह मेला लगने लगा।

किवदंती है कि मय दानव की पुत्री मन्दोदरी ने चण्डी मंदिर बनवाकर नवरात्रि पूजन और धार्मिक महोत्सव शुरू कराया। इसके सरकारीकरण के बारे में बताया जाता है कि वर्ष 1883 में तत्कालीन कलक्टर एफएन राइट ने चण्डी मंदिर ओर बाले मियां की मजार का महत्व समझा। उन्हें लगा कि कौमी एकता मिसाल इससे बढ़कर कहीं और नहीं मिल सकती। उन्होंने न सिर्फ मेले की अवधि बढ़ायी, बल्कि व्यक्तिगत रुचि लेकर व्यवस्था भी करायी। शुरू में यह मेला मंदिर और मजार के आसपास ही लगता था, लेकिन धीरे-धीरे इसका विस्तार होता गया।

सामाजिक पहलू भी है खास

मेले के धार्मिक के साथ ही सामाजिक महत्व भी है। तब मनोरंजन के बहुत अधिक साधन नहीं थे, वहीं बाजार भी विस्तृत रूप में नहीं था। ऐसे में आवश्यक वस्तुओं की यहां बिक्री होती थी। मेला नौचंदी का स्वरूप भले ही बदल गया हो, लेकिन मर्म वही है। रसोई के उपकरण, ढोलक, कंघा तब भी बिकता था और आज भी है। हलवा-पराठा, खजला, नानखताई, आइस्क्रीम, नमकीन व भेलपूरी आदि नौचंदी की विशेष सौगात मानी जाती रही है।

गूंज रहीं गाथाएं

यह मेला व्यापारिक गतिविधियां ही नहीं, सांस्कृतिक ताने-बाने को भी अलग पहचान दिलाता है। मेला स्थल पर स्थित पटेल मंडप में लगातार एक माह तक सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। नौचंदी मैदान में अनेक महापुरुषों के नाम पर द्वार और उनकी प्रतिमाएं सुदृढ़ मेरठी परंपरा की गाथा गाती दिखती हैं।

कौमी एकता की है मिसाल

नवचण्डी मंदिर के पुजारी पं. महेंद्र कुमार शर्मा ने बताया कि मंदिर सदियों पुराना है। स्वरूप धीरे-धीरे जरूर बदला, लेकिन मंदिर की महत्ता और श्रद्धालुओं की आस्था समय के साथ मजबूत होती गयी। इतिहास के झरोखे से देखें तो प्राचीन नवचण्डी देवी मंदिर का उल्लेख 1194 के दस्तावेजों में मिलता है। तैमूर के आक्रमण के समय एक हिन्दू ललना मधु चण्डी सेना से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। उनकी पुण्य स्मृति में नवचण्डी देवी मंदिर की नींव रखी गयी।

उधर, युद्ध में अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति सैय्यद सालार मसूद बाले मियां के हाथ की उंगली कट कर गिर गयी। युद्ध में कराह, चीत्कारों से सालार मसूद व्यथित हुए और सेनापति का पद छोड़कर फकीरी धारण कर ली। जहां बाले मियां की उंगली कट कर गिरी थी, वहीं बहादुरी की यादगार बना दी गयी जो कालांतर में बाले मियां के मजार के नाम से प्रसिद्ध हुई।

ये करते हैं आयोजन

उत्तर भारत के सुप्रसिद्ध इस मेले में दूर-दराज के दुकानदार आकर अपनी दुकानें सजाते हैं। मेले के आयोजन को लेकर नगर निगम और जिला पंचायत के बीच विवाद शुरू हुआ तो हाईकोर्ट के आदेश पर शासन ने एकांतर वर्षीय व्यवस्था लागू कर दी। अब एक साल नगर निगम और दूसरे साल जिला पंचायत मेले का आयोजन करती है।


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