झूले तो खो गए पेड़ों की डाल से जी..
मथुरा (सुरीर): बदलते परिवेश में हरियाली तीज के मायने ही बदल गए हैं। गावों में कभी लोकगीतों से सराबोर रहने वाले इस त्योहार की चमक अब फीकी नजर आने लगी है। भागदौड़ भरी जिंदगी में महिलाओं ने इसके रंग-रूप को बदल दिया है। अब तीज का त्योहार खुले बागों में पेड़ों की डालों पर झूले डालकर नहीं, घरों की चाहरदीवारी तक सिमटकर रह गया है।
सिंधारे की परम्परा, सावन के शुक्ल पक्ष की तृतीया को हरियाली तीज होती है। इस तीज पर शादी के बाद नवविवाहिता को ससुराल से सिंधारे भेजने की परम्परा गावों में अभी चल रही है। इस सिंधारे में श्रृंगार के सामान के साथ झूला, घेवर, साड़ी, चूड़िया व अन्य सामान होता है। नव विवाहिताएं पहले बागों में पेड़ों की डाल पर झूला डालकर झूलती थीं और समूह में नाचते हुए एक-दूसरे को झुलाती थीं। कई महिलाएं ढोलक और अन्य वाद्ययंत्रों से संगीत देती थीं। जिस युवती का विवाह तय हो गया होता उसे भी उसके ससुराल से ये सिंधारा भेजा जाता है।
क्या कहती हैं महिलाएं
टीवी ने त्योहारों के स्वरूप को ही बदल कर रख दिया है। न पहले जैसे झूले नजर आए और न ही गीत मल्हार। आधुनिक समाज पुरानी परंपराओं को भी भूलते जा रहे हैं।
-सुनीता गुप्ता।
बागों में झूले होते थे और फिर सहेलियों के साथ झूलों पर ऊंची-ऊंची पेंग लेती महिलाओं का उत्साह देखते ही बनता है। अब वह बातें कहा दिखती हैं।
- डा: अनीता वाष्र्णेय।
भागदौड़ की जिंदगी में तीज त्योहार मात्र औपचारिक बन कर रह गए हैं। अब पहले जैसी सामूहिकता और खुशी भी आपस में दिखाई नहीं देती है। जिससे यह त्योहार सीमित होते जा रहे हैं।
-ममतेश शर्मा।
पहले गावों में सभी महिलाएं सामूहिक रूप से तीज त्योहार पर बाग बगीचों में झूला डालकर कर नाचती गाती थीं। लेकिन अब गावों में यह परम्परा सीमित बन कर रह गयी है। इसके पीछे भागदौड़ और आपसी सामंजस्य की कमी मुख्य वजह है।
-संगीता सिंह।