Move to Jagran APP

वाराणसी में फिर गूंजने लगी घंटे-घडिय़ाल और अजान की स्वर लहरियां

स्वर लहरियां गूंजीं, घंटे-घडिय़ाल भी बजे। एक ओर अजान हुई तो दूसरी ओर सुबह-ए-बनारस की आरती। संस्कारों की नींव पर सुबह हुई। न डर न आशंका। देखो, यूं ही मैं बनारस नहीं कहलाता। मुझे फर्क नहीं पड़ता कि तुमने मेरी छाती कितनी रौंदी। गर्म सलाखों से उसे कितनी जगह जलाया।

By Ashish MishraEdited By: Published: Wed, 07 Oct 2015 11:24 AM (IST)Updated: Wed, 07 Oct 2015 11:29 AM (IST)

वाराणसी (राकेश पाण्डेय) । स्वर लहरियां गूंजीं, घंटे-घडिय़ाल भी बजे। एक ओर अजान हुई तो दूसरी ओर सुबह-ए-बनारस की आरती। संस्कारों की नींव पर सुबह हुई। न डर न आशंका। देखो, यूं ही मैं बनारस नहीं कहलाता। मुझे फर्क नहीं पड़ता कि तुमने मेरी छाती कितनी रौंदी। गर्म सलाखों से उसे कितनी जगह जलाया। मेरी मस्ती ही मेरा मरहम है और रोज सूर्य की पहली किरण से भी पहले मैं फिर खड़ा हो जाता हूं।

loksabha election banner

हां, पथराव-आगजनी, लाठियों की बरसात, जो कुछ भी हुआ को मेरे आंगन में, उसका बड़ा अफसोस रह जाएगा। उन महिलाओं का उत्साह और रुदन भी नहीं भूलेगा, जिन्होंने एक दिन पहले से भूखे-प्यासे रहकर अपने बच्चों के लिए जीवित्पुत्रिका का व्रत रखा था और बलवे में फंसकर भी अपना जज्बा नहीं खोया। अचानक कुछ चेहरे मुझे किवृत करने की कोशिश करते हैं कि कफ्र्यू की नौबत आ जाती है।

मैंने औरंगजेब को झेला। अंग्रेज जनरलों डलहौजी से लेकर वारेन हेस्टिंग तक का सामना किया। इतिहास गवाह है कि इनमें से कोई मुझे हिला न पाया। सबके पांव उसी तरह उखड़े जिस तरह मंगलवार को भय के बादल को चीरता हुआ निर्भयता का सवेरा सामने आया। तड़के ही गंगा स्नान के लिए टोलियां निकलीं जिन्होंने रोज की तरह काल भैरव, बाबा विश्वनाथ और संकट मोचन दरबार में हाजिरी लगाई। उस झुकी हुई कमर वाले वृद्ध का विश्वास भी नहीं डगमगाया था, जो आज फिर मस्जिद में गया और सुबह की अजान दी।

मोहल्लों के गली-कोने भी हमेशा जैसे आबाद थे। सुबह के साथ ही गमछा लपेटे, गंजी पहने छाती तानकर चट्टी-चौमुहानियों, अड़ी और बाजारों पर लोग बलवाइयों को कोस रहे थे...सब ठेठ बनारसी। सोमवार को भी 75 पार कर चुके मेरे सैकड़ों रक्षक नाती-पोतियों का हाथ पकड़े भाव विह्वल हो मां गंगा की ओर बढ़ रहे थे। वे धर्मों रक्षति रक्षत: का सरल श्लोक भले न जानते हों लेकिन उन्हें पता है कि अगर वे अपने धर्म की रक्षा करेंगे तो धर्म उनकी रक्षा करेगा। नाती-पोतों को भी पता था कि जान भले चली जाए, बाबा को कुछ नहीं होने देना है। जिस संस्कार से वे बंधे हैं, उन्हें किसी की ओछी धमकियां और निम्न कर्म तोड़ नहीं सकते।

देखो, बनारसी शेर सुबह से सड़कों पर दहाडऩे लगे, पूरा शहर उसी गति से उसी तरह चलने लगा, जैसे कल कुछ हुआ ही न हो। वे फिर अपनी मस्ती में आ गए। आखिर यूं ही मैं बनारस नहीं कहलाता। संस्कृति का मेरा रस सभ्यताओं को बांधता है।


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.