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SGPGI के निदेशक का दावा-कम संसाधनों में भी हमारी साख सीबीआइ जैसी

प्रो.राकेश कपूर कहते हैैं कि इलाज के मामले मेंएसजीपीजीआइ की साख वैसी ही है, जैसी अपराधों की गुत्थी सुलझाने को लेकर सीबीआइ की है लेकिन, हमारे पास संसाधनों की कमी है।

By Dharmendra PandeyEdited By: Published: Sun, 28 May 2017 09:33 AM (IST)Updated: Sun, 28 May 2017 10:35 AM (IST)
SGPGI के निदेशक का दावा-कम संसाधनों में भी हमारी साख सीबीआइ जैसी

लखनऊ । संजय गांधी स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान (एसजीपीजीआइ) यानी चिकित्सा का ऐसा संस्थान जहां गंभीर से गंभीर रोगी का इलाज संभव है, मगर यहां की इमरजेंसी में भर्ती होना, बिस्तर मिलना भी चमत्कार जैसा है।  निदेशक प्रो.राकेश कपूर कहते हैैं कि इलाज के मामले मेंएसजीपीजीआइ की साख वैसी ही है, जैसी अपराधों की गुत्थी सुलझाने को लेकर सीबीआइ की है लेकिन, हमारे पास संसाधनों की कमी है। ऐसे में दूसरे प्रदेशों के मरीज भी यहां आ रहे हैैं। सुझाव है कि मरीज को एसजीपीजीआइ लाने से पहले मोबाइल नंबर- 08765977853 पर फोन करके बेड की स्थितियां पता कर लें। विशेष संवाददाता परवेज अहमद ने जनता के सवालों को उनके समक्ष रखा। प्रस्तुत है उसके अंश- 

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पीजीआइ में मरीजों को बेड नहीं मिलता, क्यों?

- सच्चाई यह है कि मरीजों की संख्या के अनुपात में हमारे संसाधन कम हैैं।दस साल में मरीजों की संख्या में चार गुना बढ़ोतरी हुई मगर बेड और संसाधन वही हैं। एसजीपीजीआइ के डाक्टरों, स्टाफ की साख है, इसलिए दूसरे प्रदेशों के मरीज भी यहां आ रहे हैैं। सामान्य मरीज भी आ जाता है। जबकि हमें गैस्ट्रो, हृदय, गुर्दा, लिवर और जेनेटिक बीमारियों पर काम करना होता है। 

तो बेड बढ़ा क्यों नहीं रहे हैैं?

- सिर्फ बेड बढ़ाने से काम नहीं चलेगा। बेड के अनुपात में सीटी स्कैन, एमआरआइ, स्टाफ, डाक्टर बढ़ाने होंगे, तभी गुणवत्ता रहेगी। पुरानी ओपीडी में 125 बेड बढ़ाने की प्लानिंग हैै, इससे उन विभागों को बेड मिल जाएगा जो वैकल्पिक तौर पर बेड लिए हुए हैं। इससे ज्यादा मरीज भर्ती किये जा सकेंगे।  

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इमरजेंसी में भी बेड नहीं मिलता?

- इमरजेंसी रिसीविंग स्टेशन के बगल में 27 बेड का वार्ड तैयार है। इसे क्रियाशील करना है। इसमें छह माह का समय लग सकता है। 

किडनी ट्रांसप्लांट सहित अन्य सर्जरी के लिए एक साल की वेटिंग? इतने में मरीज तबाह हो जाएगा?

- किडनी ट्रांसप्लांट या दिल की सर्जरी के लिए हम लोग अभी अकेले काम कर रहे थे। अब लखनऊ के दूसरे अस्पताल आरएमएल, मेडिकल यूनिवर्सिटी के साथ मिल कर उनके संस्थान में तकनीक स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैैं, जिसमें सफलता मिल रही है। जब तक एक संस्थान दूसरे संस्थान के पूरक नहीं बनेंगे तब तक दिक्कत बनी रहेगी।दूसरे संस्थान जब किडनी ट्रांसप्लांट करने लगेंगे तब हमारे यहां वेटिंग कम होगी। अभी हम लोग साल में 140 ट्रांसप्लांट कर पा रहे हैैं। 

दूसरे अस्पताल इसके लिए तैयार क्यों नहीं हैैं?

- इस पर कुछ कह नहीं सकते हैैं लेकिन, दूसरे संस्थान जब भी सहयोग मांगते हैैं, एसजीपीजीआइ के डॉक्टर मदद करते हैैं।

110 करोड़ की लागत वाला लिवर ट्रांसप्लांट सेंटर पांच वर्ष से खड़ा है? 

- लिवर ट्रांसप्लांट सेंटर में कुछ संसाधन कम हैं जिसे पूरा कर दोबारा शुरू करने की कोशिश है। संकाय सदस्य आ गए हैैं। 

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दस साल से हिमैटोलाजी का भवन बन रहा है, यह कब पूरा होगा और मरीज को इलाज मिलना कब शुरू होगा? 

- हिमैटोलीजी भवन में कुछ हद तक काम शुरू हो गया है। जल्दी ही पूरा विभाग वहां शिफ्ट हो जाएगा। जिससे मरीजों को मिलने वाली सुविधा में इजाफा होगा। 

ट्रामा सेंटर कब और कैसे शुरू करने की योजना है?

- ट्रामा सेंटर अभी हमें हैंडओवर नहीं किया गया है। एक बार यह हमें मिल जाए तब प्लानिंग करेंगे। ट्रामा के साथ इसमें इमरजेंसी सेवा भी शुरू करना है। पहले मेडिसिन विभाग की इमरजेंसी शुरू करेंगे, सफल होने पर यह सेंटर ट्रामा के मामले हैंडिल करने लगेगा। सरकार ने संसाधन का वादा किया है। उम्मीद है कि छह माह अंदर ट्रामा सेन्टर में अन्तरराष्ट्रीय स्तर की सुविधाएं शुरू हो जाएंगी। 

आरोप है एसजीपीजीआइ में शक्ल देख कर रिटायर संकाय सदस्यों को दोबारा तैनाती दी जा रही है?

- ऐसा नहीं है। संस्थान की नियमावली में यह व्यवस्था है किअगर संस्थान जनहित के लिए किसी संकाय सदस्य, कर्मचारी और अधिकारी की जरूरत महसूस करता है तो उसकी काबलियत के अनुसार दोबारा तैनाती प्रदान की जा सकती है। रही बात दो संकाय सदस्यों का पांच और एक संकाय सदस्य का तीन साल का कार्य-विस्तार देने की तो यह नियमों और शासनादेश के तहत किया गया है। इसमें भेदभाव नहीं किया गया है। जिन संकाय सदस्यों के प्रोजेक्ट चल रहे हैं, उसे पूरा करने के लिए भी समय देना होता है, यह चिकित्सा शिक्षा, संस्थान और देश के लिए आवश्यक है। 

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निदेशक और यूरोलाजी विभाग के प्रमुख दो पद आपके ही पास हैं?

- ऐसा नहीं है। एम्स दिल्ली में निदेशक का पद सबस्टेंटिव (मूल) होता है जिसका सेलेक्शन चयन प्रक्रिया के तहत होता है जबकि यहां टेन्योर(अवधि) पद है। यहां निदेशक पद से हटने के बाद कोई व्यक्ति अपने मूल पद पर काम कर सकता है। हमने तो विभाग के प्रमुख का पद वरिष्ठ संकाय सदस्य को दे रखा है। उनके पास सिर्फ वित्तीय निर्णय का अधिकार नहीं है।

एसजीपीजीआइ के अंदर के लोग ही आपकी कार्यप्रणाली की शिकायतें शासन, सरकार तक ले जा रहे हैैं?

- देखिए, एसजीपीजीआइ में सब कुछ पारदर्शी है। हां, लोगों ने शिकायतें कीं, जिनकी उच्च स्तरीय जांच हो चुकी है। अब किसी को शिकायत करने से तो नहीं रोका जा सकता है। प्रशासनिक ओहदा संभालने वाले हर कोई खुश नहीं हो सकता है। हमारी प्राथमिकता मरीजों का हित और शोध की गुणवत्ता बढ़ाना है। उस दिशा में कार्य चल रहा है। 

क्या कारण है कि संकाय सदस्य कर्मचारी आंदोलन की राह चुनते हैैं?

- ऐसा नहीं है। यहां की अधिकतर फेकेल्टी (शिक्षक) का कार्य अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप है, वह चिकित्सा शिक्षा के क्षेत्र में शोध में जुटे हैैं। मरीजों का दबाव भी झेलते हैैं। दुश्वारी में कभी कभार नाराजगी होती है, जिसे दूर किया जाता है। कर्मचारियों का मामला इतर है। हालांकि अब वह भी आंदोलन से दूर रहने लगे हैैं। 


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