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गरीबी को नॉकआउट करने में लगी है कानुपर की 'मैरीकॉम'

रुखसार 12-13 साल की रही होंगी, तभी बुलंदशहर में आयोजित प्रतियोगिता में भाग लेने का मौका मिला तो वहां गोल्ड मेडल जीत लिया।

By amal chowdhuryEdited By: Published: Sun, 23 Apr 2017 10:18 AM (IST)Updated: Sun, 23 Apr 2017 10:18 AM (IST)
गरीबी को नॉकआउट करने में लगी है कानुपर की 'मैरीकॉम'
गरीबी को नॉकआउट करने में लगी है कानुपर की 'मैरीकॉम'

कानपुर (जितेंद्र शर्मा)। हालात उसे दौड़ने नहीं दे रहे और ख्वाब हैं कि थमने-ठहरने भी नहीं दे रहे। जोश, जुनून, जज्बे में कोई कमी नहीं। जिंदगी को जंग मान चुकी ये बेटी मुश्किलों पर लगातार मुक्के बरसाए जा रही है। कितनी ही मुक्केबाजों को धूल चटाकर राष्ट्रीय मुकाबलों में पदक जीत चुकी है। मगर, मुफलिसी है कि ढेर ही नहीं हो रही। हालात से हांफती है तो जुबां पर दर्द आता है, 'सूखी रोटी खाकर कोई कैसे चैम्पियन बने?' मगर, मन में बैठी 'मैरीकॉम' फिर झकझोरती है तो कभी भूखे पेट पसीना बहाती है, कभी फटे जूते ही पहनकर दौड़ लगाती है।

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ये कहानी है कानपुर के मछरिया निवासी रुखसार बानो की। कामगारी कर घर चलाने वाले मूल रूप से कौशांबी निवासी मो. अशरफ ने दो बेटियों की शादी कर दी। रुखसार भी बड़ी बहन यासमीन के साथ किदवई नगर उसकी ससुराल में रहने लगी। बहन ने केके कॉलेज में दाखिला दिला दिया। खेल प्रशिक्षक संजीव दीक्षित वहां बच्चों को खेल सिखाने आते थे। छठवीं क्लास में पढ़ते हुए रुखसार भी सभी खेलों में रुचि लेने लगी।

रुझान बॉक्सिंग की तरफ हुआ तो उसी में रम गई। स्थानीय प्रतियोगिताओं में भाग लेने लगी। 2006 में रुखसार 12-13 साल की रही होगी, तभी बुलंदशहर में आयोजित प्रतियोगिता में भाग लेने का मौका मिला तो वहां गोल्ड मेडल जीत लिया। इस राज्यस्तरीय प्रतियोगिता के बाद पटियाला में आयोजित राष्ट्रीय मुकाबले में उतरी तो वहां कांस्य पदक मिला। वहां उसने तीन फाइट जीती।

रुखसार बताती हैं कि घर वालों की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी, तो मदद भी नहीं मिल पाती थी। जैसे-तैसे व्यवस्था कर गोपाल साईं एकेडमी भोपाल में चली गईं। 2012 में खेलते वक्त बैकपेन हो गया। इलाज के लिए भी मदद नहीं मिली तो भी खेलना जारी रखा। विशाखापट्टनम के नेशनल कैंप में जाने का मौका मिला। वहां से लौटकर कानपुर में आयोजित सीनियर स्टेट मुकाबला खेला तो उसमें बेस्ट बॉक्सर चुनी गई।

इसके बाद विशाखापट्टनम के इंडिया कैंप में गई। वहां जूते फट गए, लेकिन नए खरीदने के लिए पैसे नहीं थे। फटे जूतों से प्रेक्टिस करती रही और 2013 में सीनियर नेशनल कॉम्पटीशन खेला। हालांकि पदक नहीं जीत सकी। दस राष्ट्रीय मुकाबलों में भाग लेने के बाद 2014 में कॉमनवेल्थ ट्रायल के लिए कॉल आया। वहां जाने तक के पैसे नहीं थे। तब छोटे भाई का लैपटॉप बेचकर वहां गई।

कॉमनवेल्थ ट्रायल से यू-टर्न: रुखसार बताती हैं कि कॉमनवेल्थ ट्रायल के दौरान देखा कि देशभर की खिलाड़ियों का रहन-सहन कैसा है। सारी सुख-सुविधाएं उनके पास थीं। हताश हुई और कॉमनवेल्थ के लिए नहीं चुनी जा सकीं। वहीं से नेशनल कॉम्पटीशन की किताब फाड़कर लौट आई। यहां घर वालों ने शादी की बातचीत शुरू कर दी। रेलवे में नौकरी की बात भी पूरी हो गई लेकिन फिर गरीबी आड़े आ गई। मंगेतर से भी मदद न मिली तो निर्णय लिया कि शादी नहीं करनी।

दोबारा ग्लव्स पहन खड़ी हुई: मुक्केबाजी को अलविदा कहने की सोच चुकी रुखसार को अचानक अहसास हुआ कि दस नेशनल खेलने के बाद कदम क्यों पीछे खींचे जाएं। 2016 में फिर नेशनल मुकाबला खेला। इसके बाद मेरठ के स्टेट कैंप में गई तो वहां पैर में फ्रैक्चर हो गया लेकिन जुनून देखिए कि इसके बाद भी वह लड़ी, हालांकि पदक नहीं जीत सकीं। इन दिनों सोनीपत में नेशनल मुकाबले के लिए फिर प्रेक्टिस कर रही हैं।

घर से भी लगी थीं बंदिशें: रुखसार बताती हैं कि वह जब दो-तीन नेशनल मुकाबलों में पदक जीत चुकी, तब तक बहन के अलावा किसी परिजन को जानकारी नहीं थी। जब इनाम के रूप में चेक की रिसीविंग पापा के पास पहुंची तो उन्होंने दोनों बहनों को बुलाया। झूठ बोलने की कोशिश की कि स्कूल की छात्रवृत्ति आई होगी। तब उन्होंने डांटा, खेलने से मना कर दिया, कोई भी मदद करने से मना कर दिया। कोच संजीव दीक्षित से कुछ मदद मिलती रहती है।

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साधन मिलें तो चमकें: रुखसार कहती हैं कि यदि खिलाड़ियों को जीविका का साधन मिल जाए तो वह निश्चिंत होकर खेल सकते हैं और देश के लिए मेडल जीत सकते हैं और फलक पर नाम पहुंचा सकते हैं।

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