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आज आएगी माँ 'बेटी' बनकर..

By Edited By: Published: Mon, 29 Sep 2014 01:58 AM (IST)Updated: Mon, 29 Sep 2014 01:58 AM (IST)
आज आएगी माँ 'बेटी' बनकर..

झाँसी : नवरात्रि के उत्सव में सारा शहर मगन है। जगह-जगह मूर्तियाँ सजाई जा चुकी हैं और बड़े उत्साह के साथ देवी माँ की पूजा-अर्चना की जा रही है। परन्तु बंगालियों में दुर्गोत्सव का विधि-विधान गैर-बंगाली समुदायों से थोड़ा भिन्न है और बहुत रुचिकर भी।

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षष्ठी को होती है घट-स्थापना

पौराणिक कथा के अनुसार भगवान राम ने रावण को हराने हेतु शक्ति प्राप्त करने के लिए दुर्गा माँ की 9 दिनों तक उपासना की थी। बताते हैं कि दीपावली के समय देवउठान होता है और इससे पहले देवी-देवता सुसुप्त अवस्था में होते हैं। दुर्गा माँ को जगाने के लिए राम ने जो विधि अपनाई, उसे 'अकालबोधन' के नाम से जाना जाता है। इसके बाद उन्होंने घट की स्थापना कर देवी को धरती पर आमन्त्रित किया। घट अर्थात् घड़ा नश्वर शरीर का प्रतीक माना जाता है। इसमें पानी भर कर इसके मुँह पर आम के पत्तों से सजा व सिन्दूर चढ़ा नारियल रखा जाता है। जिस तरह आज मूर्तियों में देवी के प्राण प्रतिष्ठित किए जाते हैं, राम ने घट में प्राण-प्रतिष्ठित करके उसे देवी का स्वरूप माना था। जब देवी प्रसन्न होकर धरती पर उतरीं, तब शाम हो चुकी थी। शाम को घर में बहू-बेटियों का प्रवेश वर्जित होने की परम्परा के कारण तब माँ को बेल-पत्र पर अवतरित कराया गया था। सम्पूर्ण रात बेल-पत्र पर व्यतीत करने के पश्चात् अगले दिन पूजा-अर्चना करके घट में उनका प्रवेश कराया गया था। आज भी बंगाली समाज में दुर्गा माँ को बेटी का ही रूप माना जाता है। बेटी के रूप में ही उन्हें आमन्त्रित किया जाता है और बेटी ही मानकर उनका स्वागत-सत्कार व विजयादशमी पर विदाई की जाती है। आज भी नवरात्रि पर माँ का आह्वान करने के पश्चात् पहले उन्हें बेल-पत्र पर अवतरित किया जाता है।

मूर्ति-निर्माण की परम्परा है अनोखी

0 दुर्गोत्सव के लिए मूर्ति निर्माण की प्रक्रिया अक्षय तृतीया से ही आरम्भ हो जाती है, जब रथ यात्रा निकलती है। इस समय नदियों के तट और विशेष रूप से गंगा के तट से मूर्ति बनाने के लिए मिट्टी एकत्र की जाती है।

0 पुरानी परम्परा के अनुसार इस मिट्टी में एक मुट्ठी मिट्टी वेश्याओं की देहरी से उठाकर मिलाई जाती है। इस मिट्टी को समानता और समृद्धि का प्रतीक मानते हुए 'पवित्र माटी' कहा जाता है। इसके पीछे दो कारण बताये जाते हैं- पहला, इस स्थान पर धर्म, जाति, ऊँच-नीच से परे हर वर्ग के व्यक्ति का पैर पड़ने से माना जाता है कि यह समानता को दर्शाती है। दूसरा, इस स्थान पर निवास करने वाले लोग सदा अपने ग्राहक की सुख-समृद्धि की कामना सच्चे दिल से करते हैं क्योंकि उनकी बरक्कत के बिना वे खुद अच्छा जीवन नहीं जी सकते। इसी भावना के कारण यहाँ की मिट्टी समृद्धि का प्रतीक मानी जाती है।

0 मूर्ति-निर्माण की प्रक्रिया में एक और महत्वपूर्ण विधान होता है- 'चक्षु दान'। महालय अर्थात् पूजा के पहले दिन चित्रकार देवी की आँखें चित्रित कर उनमें रंग भरता है। इस दिन कलाकार पूरे दिन व्रत रखता है।

फूटा चौपड़ा स्थित कालीबाड़ी से सम्बद्ध शिवशंकर चटर्जी प्रांगण में दुर्गा-मूर्ति को अन्तिम रूप देते हुए कलाकार की ओर संकेत करके बताते हैं- 'इसका नाम अब्दुल खलील है। यह हर साल बड़े मनोयोग से असीम श्रद्धा के साथ दुर्गा जी की मूर्ति तैयार करता है। इससे पहले इसके पिता स्व. अब्दुल खालिक यह काम किया करते थे। उन्हें हिन्दू-पुराणों की जानकारी हमसे भी कहीं अधिक थी, साथ ही इस्लाम धर्म में तो उनकी पूरी निष्ठा थी ही। माँ के दरबार में किसी भी तरह का भेदभाव नहीं। मन में श्रद्धा है, तो सबका स्वागत है।' सीपरी स्थित कालीबाड़ी से सम्बद्ध प्रियांशु डे ने बताया- 'मूर्ति के निर्माण में 7 समुद्रों का पानी प्रयोग में लाने का रिवा़ज है। पूजा की अन्य सामग्री के साथ यह भी बा़जार में उपलब्ध हो जाता है। अब पवित्र-माटी भी खुद जाकर लाना थोड़ा कठिन हो चला है, इसलिए हम इसे बा़जार से ़खरीद लेते हैं।'

सप्तमी पर जीवन्त हो उठती है मूर्ति

देवी दुर्गा की यह मूर्ति षष्ठी तक मिट्टी की बनी मात्र एक मूर्ति मानी जाती है, जिसमें उनके साथ लक्ष्मी, सरस्वती, गणेश व कार्तिकेय भी विराजमान होते हैं। परन्तु बंगालियों में यह मान्यता है कि सप्तमी पर प्राण-प्रतिष्ठा के पश्चात् मूर्ति में दिव्य शक्ति आ जाती है और माँ के चेहरे पर एक अलग ही ते़ज दिखाई देने लगता है। मान्यतानुसार, प्राण-प्रतिष्ठा का अर्थ है कि सप्तमी वाले दिन जब शुभ अवसर पर देवी को विधि-विधान के साथ बेल-पत्र से मूर्ति में प्रवेश कराया जाता है, तो मूर्ति में प्राण आ जाते हैं। फिर उसे माँ का असली स्वरूप मानकर अगले 3 दिनों तक उसकी पूजा की जाती है। शिवशंकर बताते हैं- 'झाँसी में दुर्गा-पूजा के लिए बाहर से विशिष्ट पुरोहित आमन्त्रित किये जाते हैं क्योंकि इस पूजा को त्रुटिविहीन रखना बहुत आवश्यक होता है।' कालीबाड़ी से ही जुड़े सिद्धार्थ चटर्जी बताते हैं- 'इस बार पुरोहित कोलकाता से आ रहे हैं। पूरे 3 दिन महोत्सव मनाया जायेगा। प्रतिदिन सुबह देवी को पुष्पांजलि दी जायेगी। समाज के पुरुष पारम्परिक धोती-कुर्ते और महिलायें पारम्परिक साड़ियों में ऩजर आएंगी। हमारे यहाँ छोटी-छोटी लड़कियों को भी इन दिनों साड़ियाँ पहनाने का रिवा़ज है।'

दुर्गा-पूजा का उत्सव भगवान राम की शक्ति-पूजा के साथ-साथ विशेष रूप से देवी दुर्गा द्वारा महिषासुर नामक दैत्य के वध की याद दिलाता है। वध के बाद से यह पूजा अच्छाई की बुराई पर जीत के प्रतीक के रूप में देखी जाने लगी। पहली दुर्गा-पूजा तत्कालीन कलकत्ता में 1610 में हुई मानी जाती है। स्वतन्त्रता संघर्ष के समय सन् 1926 में अतीन्द्रनाथ बोस द्वारा 'सर्बोजन दुर्गा-पूजा' का आयोजन करके हर धर्म व तबके के लोगों को मानसिक व आत्मिक रूप से एकीकृत करने का प्रयास किया गया था। कोलकाता में इस त्योहार को सबसे बड़े वार्षिकोत्सव के रूप में मान्यता मिली हुई है। दूसरे नगरों व महानगरों में भी यह उत्सव अद्भुत उत्साह के साथ मनाया जाता है। अपने शहर झाँसी में तो आप दुर्गोत्सव पर हो रही बड़े स्तर की तैयारियों और आनन्द के माहौल को देख ही रहे होंगे..!


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