पान की खेती से पलायन कर रहे युवा किसान
शशि गुप्ता
तेजीबाजार (जौनपुर) : प्रकृति की मार से पान की खेती प्रभावित हो गई है। कभी तापमान अधिक होने व सिंचाई के लिए पानी के संकटके चलते बेलें और पत्ते तेजी से सूख जाते हैं तो कभी विभिन्न रोगों की चपेट में आकर फसल बर्बाद हो जाती है। प्रशासनिक उपेक्षा के चलते खेती करने वाले किसानों की कमर टूट गई है। पान की खेती पर दिया जाने वाला अनुदान ऊंट के मुंह में जीरा साबित हो रहा है।
पान की खेती देश में प्राचीनकाल से होती चली आ रही है। इसके महत्व का वर्णन यजुर्वेद में किया गया है। हमारी संस्कृति व धार्मिक रीति-रिवाजों में पान के पत्ते का विशेष महत्व है। इसमें विटामिन ए, बी और सी के अतिरिक्त औषधीय गुण भी पाया जाता है। कभी आमदनी का जरिया बनने वाली पान की खेती वर्तमान में घाटे का सौदा साबित हो रही है।
बक्शा विकास खंड के मयंदीपुर, बेदौली, सरायत्रिलोकी, महराजगंज ब्लाक के इब्राहिमपुर, कोल्हुआ, उदयभानपुर आदि गांवों में चौरसिया बिरादरी के लोग पान की खेती करते हैं।
हाड़तोड़ मेहनत और भारी लागत के बाद प्रकृति की मार और बीमारियों के चलते यह खेती घाटे का सौदा साबित हो रही है। प्रशासन द्वारा भी पान की खेती को प्रोत्साहित करने के लिए कोई योजना नहीं चलाई जा रही है। मजबूरन इस व्यवसाय से जुड़े लोग रोजी-रोटी की तलाश में महानगरों को पलायित हो रहे हैं।
किसानों के मुताबिक बांस, सरपत, सरहरी, रस्सी, ताई, पुआल आदि की सहायता से काफी लागत में मेहनत से भीटों को तैयार किया जाता है। 1500 वर्ग मीटर भीटा तैयार करने में लगभग 50 हजार रुपये की लागत आती है। एक बीघा पनवाड़ी में 20 से 25 लोग मिलकर अप्रैल व मई में तने की रोपाई करते हैं। छायादार, नम व ठंडा वातावरण खेती के लिए सबसे उपयुक्त है।
पान की फसल में सिंचाई का विशेष महत्व होता है। ग्रीष्म कालीन सिंचाई ढाई सेतीन घंटे के अंतराल पर दिन में तीन-चार बार करनी पड़ती है। पान की सिंचाई करना बहुत ही श्रमसाध्य है। कुछ किसान टुल्लू से सिंचाई करते हैं लेकिन देशी विधि से सिंचाई करने पर उत्पादन अधिक होता है। मिंट्टी के बने पात्र गेवुआ (घड़ा) को कंधे पर रखकर हथेली पर पानी गिराकर (देशी फव्वारा) की सहायता से सिंचाई की जाती है।
फसल रोग की चपेट में न आए इसके लिए विशेष देखरेख के साथ ही दवाओं का छिड़काव जरूरी होता है। मयंदीपुर गांव निवासी किसान लालमनि और लालजी ने बताया कि पान के पौधों की जड़ों में पानी एकत्र होने पर पौधा सूख जाता है। इसलिए भीटों या ऊंचे खेतों में खेती की जाती है। पान की फसल में गांधी, गुर्ची, कटुआ, काली गांठ आदि बीमारियां लगती हैं। इन रोगों से फसल को बचाना कठिन और खर्चीला होता है। इसके चलते फसलें बर्बाद हो जाती हैं।
खली का होता है प्रयोग
पान की खेती में रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग नहीं किया जाता है। कंपोस्ट खाद डालने पर पौधों में दीमक लग जाते हैं। बुवाई के समय सिर्फ नीम व सरसों की खली का प्रयोग किया जाता है।
बीमा व लोन की सुविधा नहीं
पान की फसल में कीटों व रोगों का प्रकोप अधिक होता है। बचाव के लिए पर्याप्त साधन व जानकारी न होने के कारण किसानों को भारी क्षति उठानी पड़ती है। इस क्षति से बचने के लिए न तो फसल बीमा होता है और न ही ऋण की सुविधा है। मयंदीपुर गांव निवासी किसान लालजी, महेंद्र, राम किशुन ने बताया कि किसान क्रेडिट कार्ड की भी सुविधा नहीं मिली है।
70 किसानों को दिया गया अनुदान
जिला उद्यान अधिकारी एसएमपी पटेल ने बताया कि पान की खेती के प्रोत्साहन हेतु कई योजनाएं चलाई जा रही हैं। राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के तहत 50 तथा पान विकास योजना में 20 किसानों को अनुदान दिया गया। प्रत्येक किसानों को 1500 वर्ग मीटर खेती के लिए 76680 रुपये अनुदान दिए गए। उन्होंने बताया कि रोगों से फसल को बचाने और खेती की नई तकनीक की जानकारी भी किसानों को दी जा रही है। विकास विकास योजना के तहत मंडल स्तर पर आयोजित शिविर में 20 किसानों को प्रशिक्षण दिया गया।