सियासी मंच में गुम हो गया रंगमंच
गोंडा: वक्त दोपहर के 12 बजे हैं। गांधी पार्क स्थित टाउन हाल में रंगकर्मी तैयारी में लगे हुए हैं। कोई
गोंडा: वक्त दोपहर के 12 बजे हैं। गांधी पार्क स्थित टाउन हाल में रंगकर्मी तैयारी में लगे हुए हैं। कोई पर्दा सही कर रहा है तो कोई कुर्सियां साफ कर रहा है। लाउड स्पीकर लगाने की तरकीब लगाई जा रही है। लाइ¨टग करने के लिए जद्दोजहद चल रही है। इन्हीं सब उठापठक के बीच राम भवन बोल पड़ते हैं कि भइ्या बहुत होई गवा, कब तक अइसे परदा टांगा जाई। अब तौ नाटक करैक कय मन ही नाही करत हय। उनकी बात का समर्थन करते हुए विक्रांत कहते हैँ कि हिया तो सब राजनीति के खेल होई गवा। जहां पे फायदा होत हय, हुंऐ सबै ध्यान देत हय। विवेक कहते हैं कि एक तो नाटक करौ अउर सौ बार सोचय कि कहां से इंतजाम करा जाई। यह दर्द किसी एक का नहीं, बल्कि जिले के रंगमंच का यही हाल है।
रंगकर्म के मैदान में वैसे तो प्रतिभाओं की कमी नहीं है। लंबे समय से यहां के रंगकर्मियों ने अपनी एक पहचान अपने दम पर बनाई है। उन्हीं में से कई आज फिल्मी दुनिया में भी धमाल मचा रहे हैं। बावजूद इसके इन्हीं कलाकारों को यहां पर अपनी जमीन तलाशनी पड़ रही है। न तो मंचन के लिए कोई विशेष प्रबंध है न ही रिहर्सल के लिए कोई जगह। कहने को तो एक अद्द डॉ. संपूर्णानंद प्रेक्षागृह है, जिसे इन दिनों टाउन हाल के नाम से जाना जाता है। यहां पर नाटक के साथ ही आए दिन नेताओं की मी¨टग हो रही है, अधिकारियों की कार्यशाला व स्कूलों के आयोजन हो रहे हैं। बावजूद इसके न तो यहां पर लाइ¨टग सही है, न ही कुर्सियों का हाल ठीक है। और तो और नाटक के मंचन के लिए कलाकारों को यहां पर कई बार सोचना पड़ता है। प्रेक्षागृह को नाटक की खातिर बुक कराने के लिए अधिकारियों के चक्कर काटने पड़ते हैं। ऐसा नहीं है कि इस समस्या से जिम्मेदार वाकिफ नहीं है लेकिन वह इस पर ध्यान ही नहीं दे रहे हैं। वर्ष 2012 में तत्कालीन डीएम डॉ. रोशन जैकब ने रंगमंच को एक नई पहचान देने का मसौदा तैयार किया था, जिसके तहत वेंक्टाचार्य क्लब के मैदान में मिनी आडिटोरियम व रामलीला मैदान में ओपेन थियेटर बनाने की योजना बनाई। इसके साथ ही कलाकारों को रिहर्सल के लिए भी जगह उपलब्ध कराने पर जोर दिया गया। इसके लिए शासन स्तर पर लिखा पढ़ी की गई लेकिन उनके तबादले के बाद से यह मामला फाइलों में कैद हो गया। सियासी दांव पेंच में उलझे नेताओं ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया, जिसके कारण रंगमंच आज भी मुश्किलों से जूझ रहा है।
रंग कर्मियों के बोल
- देवव्रत ¨सह का कहना है कि रंगमंच को गति देने के लिए दो दशक से चल रही जंग आज भी जारी है। न तो रंगकर्मियों के मंचन के लिए कोई प्रबंध है न ही अन्य इंतजाम। महेश ¨सह कहते हैं कि मिनी आडिटोरियम के लिए प्रस्ताव बना था लेकिन वह कहां चला गया कुछ पता ही नहीं चल रहा है। अनूप कुमार का कहना है कि यहां पर तो रंगमंच को सुविधाओं का ग्रहण लग गया है। जिससे सूरत बदलने के बजाय और ही उलझती जा रही है। दीपक श्रीवास्तव कहते हैं कि रंगमंच को आगे लाने के लिए कोई ठोस प्रयास किया जाना चाहिए।