नि:शक्त बेटी का सहारा बनी वाटिका
गोंडा: कहते हैं कि मन के जीते जीत, मन के हारे हार.. कुछ यही लाइनें परिषदीय विद्यालय में शिक्षिका डॉ.
गोंडा: कहते हैं कि मन के जीते जीत, मन के हारे हार.. कुछ यही लाइनें परिषदीय विद्यालय में शिक्षिका डॉ. वाटिका कंवल पर सटीक बैठ रही हैं। बात अगस्त माह की है। 14 साल की एक मूकबधिर बालिका अपने घर पर रह रही थी। उसे खोजकर उसका स्कूल में दाखिला कराया गया। प्रवेश तो हो गया, लेकिन मूक बधिर होने के कारण उसे पढ़ाने में काफी दिक्कतें हुईं। बहरहाल, इस बेटी की पढ़ाई में उन्होंने पूरी मेहनत लगा दी, साथ ही उसके भीतर एक जज्बा पैदा किया। जिसका परिणाम यह रहा कि मूक बधिर बेटी ने जय हो के गीत पर सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत कर सबको चौंका दिया। फिलहाल, यह तो मात्र एक नजीर है। वह 1990 से समाज को शिक्षा की मुख्य धारा से जोड़ने की मुहिम में जुटी हुई है।
शहर के आवास विकास कालोनी में रह रहीं डॉ. वाटिका कंवल ने वर्ष 1990 में एक कलंक नामक नाटक लिखा, जो सती प्रथा पर के¨द्रत था। इस नाटक का मंचन भी हुआ। इसके बाद राजकीय बालिका इंका में पंचवटी का निर्देशन किया गया। जिसमें उर्मिला के चरित्र पर प्रकाश डाला गया। 1995 में नंदिनी नगर महाविद्यालय में बतौर अर्थशास्त्र प्रवक्ता के पद पर नौकरी शुरू की। वह बताती है कि जिस वक्त उन्होंने काम शुरू किया, उस वक्त महाविद्यालय दूर होने के कारण लोग बेटियों को भेजने में हिचकते थे। ऐसे में लोगों को समझाने के लिए उन्होंने गांवों की गलियों से लेकर मजरों तक में दस्तक दी। सभी को जाग्रत किया। बेटियों को घर की दहलीज से बाहर लाकर शिक्षा की मुख्य धारा से जोड़ने की कोशिश की गई। इसी दौर में 1999 में बेसिक शिक्षा परिषद में सहायक अध्यापक बनने के बाद उनके मन में बेटियों की शिक्षा को लेकर एक संकल्प पैदा हुआ। इसके लिए बालिकाओं के पठन पाठन के साथ सांस्कृतिक अभिरुचि पर जोर दिया। इन दिनों वह नि:शक्त बेटियों का सहारा बनने में लगी हुई है।
मिल चुका है सम्मान
- बेहतर शैक्षिक कार्य करने के कारण उन्हें तत्कालीन राज्यपाल विष्णु कांत शास्त्री, पूर्व मुख्यमंत्री वीर बहादुर ¨सह सहित अन्य से सम्मान मिल चुका है। वह आकाशवाणी पर भी कार्यक्रम प्रस्तुत कर रही है। इसके अलावा वह लेखन क्षेत्र से भी जुड़ी हुई है।