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    बिन सियाही के जइसन कलम जिंदगी

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    Updated: Wed, 08 Feb 2012 11:56 PM (IST)

    फैजाबाद, जनता की भावनाओं को उसी की आवाज में तत्काल समझने योग्य कविता का स्वरूप दे देना रफीक शादानी की खासियत थी। कबीर की तरह ही शादानी साहब ने भी शिक्षा के नाम पर किसी पाठशाला या मदरसे की चौखट तक नहीं छुआ था। गरीबी के बावजूद फक्कड़ स्वभाव के शादानी की कविताओं में किसी की खुशामद के बजाय हमेशा सच ही मुखरित हुआ। वह कहते थे-'हमका ई गवारा है बगिया से चला जाई, उल्लू का मुलु कबूतर न कहा जाई।'

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    रफीक शादानी का जन्म मार्च 1934 में बर्मा (अब म्यांमार में) हुआ था। उनके पिता इमामुद्दीन वहां तंबाकू, तेल व इत्र के व्यापारी थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान उनका परिवार अपने पैतृक गांव मुमताजनगर (फैजाबाद) आ गया। रोजी-रोटी की तलाश में घर से निकले शादानी की भेंट देहरादून में सब्जी मंडी के ठेकेदार साबिर से हुई। साबिर 'साद रुदौलवी' के नाम से शायरी करते थे। रफीक साहब ने आजादी के जलसे में अपनी पहली कविता पढ़ी थी-'केहू कहत है खाय का दाना नाय मिलत? केहू के शिकायत है ठेकाना नाय मिलत, येहि दौर से रफीक हैं, हमहूं का शिकायत है दिल लेहे घूमित है, निशाना नाय मिलत।' बस यहीं से कागजी तौर पर अनपढ़ रफीक ने अपने उस्ताद का उपनाम लेकर रफीक शादानी के नाम से राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय कवि सम्मेलनों व मुशायरों का अहम हिस्सा हो गए। अवधी तंज के मशहूर शायर रफीक शादानी ने जिंदगी के अनुभवों को बहुत करीब से देखा, जाना और सहा। अंडे व परचून की दुकान से परिवार का भरण-पोषण करने वाले शादानी ने वर्ष 1962 से हास्य रचना शुरू की। वर्ष 1963 में देहरादून का आल इंडिया मुशायरा उनका पहला मंच था। मंचों पर अपनी मजाहिया शायरी से अवध की पहचान बनाने वाले रफीक शादानी ने कालांतर में कुवैत, अरब व कई अन्य देशों में जाकर अपनी आवाज बुलंद की। अंतरराष्ट्रीय क्षितिज पर अवधी हास्य व्यंग्य के इस इकलौते सितारे का जीवन के अंतिम क्षणों तक मुफलिसी ने पीछा नहीं छोड़ा। न कोई खेतीबारी और न कोई अन्य उद्यम। ये पंक्तियां उनके जीवन संघर्ष की स्पष्ट गवाही देते हुई दिखती हैं-'कबहूं ठंडी तो कबहूं गरम जिंदगी, बिन सियाही के जइसन कलम जिंदगी, हम तौ जानेन कि अब दु:ख से फुर्सत मिली, दुई घड़ी हसिकै भै बेधरम जिंदगी।' रफीक साहब आम आदमी को ही केंद्र में रखकर कविताएं गढ़ते थे-'ई महंगाई, ई बेकारी, बिकी जात बा लोटा थारी, मरत अहै जनता बेचारी, जियो बहादुर खद्दरधारी।'

    छोटे से परिवार के साथ जीवन की तमाम दुश्वारियों के बीच वे काफी खुश नजर आते थे। यह कौन जानता था कि वर्षों पहले गली-गली, गांव-गांव सब्जी बेचने वाला शख्स एक दिन रफीक शादानी के नाम से जाना जाएगा। वक्त आगे बढ़ता रहा और इस दौरान उन्हें दो-दो बार लकवा का अटैक भी हुआ, सांस फूलने लगी, उम्र ढलने लगी। बहराइच में सात फरवरी 2010 को मुशायरे में शिरकत कर वापस आते समय गोंडा जिले में मार्ग दुर्घटना में घायल होने के बाद 9 फरवरी को उनकी मौत ने उनके चाहने वालों को झकझोर कर रख दिया। इस तरह यह उनका अंतिम मुशायरा साबित हुआ। साहित्यिक संस्था 'जनक्षेत्र' ने रफीक शादानी की कविताएं शीर्षक से उनका एक काव्य संग्रह प्रकाशित किया है। उनकी रचनाओं में कुपंथी औलाद, जिऔ बहादुर खद्दरधारी, उल्लू हौ तथा ओफ ओह प्रमुख हैं। सरल भाषा और तीखी व्यंग्य शैली में रची गई कविताओं ने उन्हें अजीम शख्सियत के मुकाम तक पहुंचाया। खुद मुफलिसी का भोगा सच उनके रचना का केंद्र रहा या यूं कहें कि उनका जो एहसास था वही आम लोगों का दर्द था जिसे इन्होंने अपने शब्दों में ढाला। यही वजह है कि आज रफीक शादानी को आधुनिक कबीर कहा जाता है, पर मेरी नजर वह माटी रतन हैं।

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