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आनंद के गागर में साधन-साध्य की चली मथनी

अयोध्या : आनंद जब सिद्ध हो जाता है, तब परमानंद बन जाता है और परमानंद जब विसर्जित होता है, तो आनंद के

By Edited By: Published: Wed, 25 Nov 2015 11:45 PM (IST)Updated: Wed, 25 Nov 2015 11:45 PM (IST)

अयोध्या : आनंद जब सिद्ध हो जाता है, तब परमानंद बन जाता है और परमानंद जब विसर्जित होता है, तो आनंद के विविध फूल खिलते हैं। आनंद और ब्रह्म को एक ही सिक्के का दो पहलू माना जाता है और उसकी प्राप्ति का माध्यम अध्यात्म है। साधन और साध्य पर इस प्रकार का मंथन चला मणिरामदास जी की छावनी सेवा ट्रस्ट की ओर से संचालित संत तुलसीदास योग एवं प्राकृतिक चिकित्सालय के सभागार में। मौका साहित्य, संस्कृति, अध्यात्म एवं दर्शन के प्रति समर्पित संस्था मंगला फाउंडेशन एवं भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद के संयोजन में 'आनंद मीमांसा' विषयक् दो दिवसीय गोष्ठी के समापन का था। रामजन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष एवं मणिरामदास जी की छावनी के महंत नृत्यगोपालदास की अध्यक्षता में अपराह्न शुरू हुई गोष्ठी में बड़ी संख्या में चु¨नदा वक्ताओं ने विचार रखे और आनंद के स्वरूप, तात्विकता, प्रकृति आदि का विशद् विवेचन किया। तीन घंटे से भी अधिक समय तक दर्जन भर से अधिक वक्ताओं ने आनंद का मार्मिक विवेचन किया। आम तौर पर आराध्य का विवेचन करते हुए आनंद की रस वर्षा करने वाले धार्मिक-आध्यात्मिक परंपरा के वक्ताओं के लिए यह रोचक प्रसंग था और वे आनंद का विवेचन करते हुए आराध्य की रस वर्षा कर रहे थे। कार्यक्रम संयोजन से जुड़े भागवतकथा मर्मज्ञ पं. राधेश्याम शास्त्री के अनुसार यह अवसर मणिरामदास जी की छावनी के साथ रामनगरी के लिए अविस्मरणीय है और वह आराध्य का आनंदमय स्वरूप ही है, जो जीव को कहीं अधिक विश्रांत और सृजनशील बनाता है। मंगला फाउंडेशन के अध्यक्ष डॉ. प्रेमसुख मंगला ने बुधवार को भी विषय प्रवर्तित किया। उन्होंने कहा, आनंद की चाह और उसकी प्राप्ति के प्रयास मानव की सहज वृत्ति है। उन्होंने रस निष्पत्ति, रसोद्रेक एवं रसास्वादन की प्रक्रिया को नैसर्गिक बताया। संचालन आचार्य रघुनाथदास त्रिपाठी ने किया। भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद के चेयरमैन एवं दिल्ली विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र के सेवानिवृत्त अध्यक्ष प्रो. सिद्धेश्वर भट्ट ने कहा कि आनंद मनुष्य की सहज वृत्ति है और यह वृत्ति उसे परमात्मा से ही प्राप्त हुई है। परमात्मा के इसी स्वरूप की अभिव्यक्ति उसे सच्चिदानंद कहने में है और उसके इसी स्वरूप को उपनिषदों में'रसो वै स:'कहकर अभिव्यंजित किया गया है।


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