बस्ते के बोझ से बीमार हो रहे नौनिहाल
देवरिया : किसी भी देश की तकदीर कोमल हाथों से ही सजती और संवरती है। आज के बच्चे ही कल के भविष्य हैं।
देवरिया : किसी भी देश की तकदीर कोमल हाथों से ही सजती और संवरती है। आज के बच्चे ही कल के भविष्य हैं। उन कोमल हाथों को तराशने की जिम्मेदारी हम सभी की है पर आज सरकारी स्कूल में आंकड़े की इबारत लिखने के कारण बच्चों का बौद्धिक विकास और पढ़ाई प्रभावित होने के डर से पब्लिक स्कूलों की तरफ अभिभावकों का रुझान तेजी से बढ़ा है, लेकिन बस्ता में किताबों की बढ़ती संख्या और उसी अनुपात में दोगुनी कापी बढ़ने से बोझ किलो के अनुपात में बढ़ा दिया है, जो उनके मानसिक विकास में अवरोध बनकर उत्पन्न हो गया है। जिसको लेकर प्रबुद्ध वर्ग भी ¨चतित है। आलम यह है कि कम उम्र में बच्चे बीमार हो रहे हैं। उनकी क्षमता प्रभावित हो रही है। कक्षा पांच तक जाने तक उन्हें आठ साल लग जा रहा है बावजूद इसके किताबें कम होने को बजाय बढ़ती जा रही हैं। इसके पीछे शिक्षा माफिया और निजी विद्यालयों के संचालक हैं, क्योंकि सरकारी विद्यालय संख्या के केंद्र बनकर रह गए हैं। इसका फायदा निजी विद्यालय उठा रहे हैं। निजी विद्यालयों के संचालक व प्रबंधक कमीशन की लालच का बोझ बच्चों की पीठ पर डाल रहे हैं। अभिभावकों को मलाल है कि बोझ कम करने के बजाय बढ़ता जा रहा है। दस किलो के मासूम के पीठ पर कई किलो का बस्ता लादा जा रहा है। विवेक कक्षा 2 का छात्र है। उसकी पीठ पर 12 किलो के बस्ते का बोझ रहता है। वाहन से उतरकर मात्र 100 मीटर घर जाने पर पसीने-पसीने हो जाता है। रमेश यादव समीप के विद्यालय में नर्सरी में पढ़ता है, उसके बैग का वजन 9 किग्रा है। घर जाते ही बैग बरामदे मे फेंक कर मां की गोद में चला जाता हैं। कम किताब ले जाने की बात पर कहता है की मिस पिटाई करेंगी, यह बात सुन मां भी सिस्टम को देखकर जिम्मेदारों को कोस कर रह जाती है।
अभिभावक दिनेश राव का कहना है की बस्ते का बोझ उन्हे बीमार बना रहा है। बच्चों का मानसिक बौद्धिक और शारीरिक विकास प्रभावित हो रहा है। कक्षा के हिसाब से किताबे बढ़ रही हैं। सुरेश कहते हैं कि बच्चों की किताब बढ़ी हैं, मानसिक स्तर के हिसाब उत्पीड़न हो रहा है। अभिभावक अर¨वद ¨सह कहते हैं कि गांवों में शिक्षा व्यवस्था फेल होने से निजी स्कूलों की संख्या बढ़ी है। बोझ का असर है कि पहले बच्चे स्कूलों से घर आने पर खेलते थे अब घर आते ही थक कर सो जाते हैं। उनके चहेरे मुरझाए दिखते हैं। रामबहाल यादव कहते हैं कि केंद्र और राज्य सरकार की गलत नीति के कारण नौनिहाल परेशान हैं शुरुआती दौर से किताबों के बोझ से उनका मानसिक विकास प्रभावित हो रहा है।
तहसील बार संघ के अध्यक्ष ब्रज बिहारी पांडेय का कहना है कि शिक्षा के प्रति सरकार गंभीर नहीं है। हाल यही रहा तो देश की प्रतिभाओं का विकास कैसे होगा। उदय अकादमी के प्रबंधक दयानंद ¨सह का कहना है कि रोजाना पढ़ने वाले विषय बदलाव करने की जरूरत हैं। उनकी किताब एक दिन एक ही पढ़ाई जाए तभी बस्ते का बोझ कम कर सकते हैं। सभी स्कूलों में उनके पाठ्यक्रम सामान हों तभी नौनिहाल को राहत मिल सकती है। कक्षा पांच तक के कोमल इन मासूमों को किताबी ज्ञान के साथ व्यावहारिकता पर ध्यान देना होगा तभी हम उनके पीठ का बोझ कम कर सकते हैं। आरएस मेमोरियल रामलक्षन के निदेशक रमेश प्रजापति का कहना है कि एलकेजी और पांच तक के बच्चों के बढ़ते बोझ के लिए सरकार को नीति बनानी पड़ेगी।
---
भारी बस्ता बच्चों के लिए घातक
: छोटी उम्र में अधिक वजन उठाना बच्चों के लिए घातक है। यह कहना है फिजियोथेरेपी डा. डीके पांडेय का। श्री पांडेय कहते हैं कि अधिक वजन के बस्ते के चलते घर आते-आते बच्चे मानसिक रूप से थक जाते हैं। उनके अंदर दर्द की शिकायत होने लगती है। इस पर रिसर्च के बाद विशेषज्ञों ने इसका नाम बैग ¨सड्रोम दिया है। इसका निदान या तो हल्का बस्ता हो या एक्सरसाइज बच्चे करें। इससे बच्चों के कमर की मांसपेशियां मजबूत होती हैं। अधिक वजन वाले बस्ते से बच्चों में कमद दर्द, पैर में झुनझुनाहट, कंधे में दर्द, गले में दर्द होना शुरू हो जाता है।