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फिरंगियों ने दी अहमियत, सुराज ने किया बदतर

By Edited By: Published: Sun, 20 Apr 2014 01:58 AM (IST)Updated: Sun, 20 Apr 2014 01:58 AM (IST)
फिरंगियों ने दी अहमियत, सुराज ने किया बदतर

जागरण संवाददाता,देवरिया : 82 वर्षो तक पूर्वाचल की चीनी उद्योग के बीच अपनी दबदबा रखने वाली गौरीबाजार चीनी मिल अब इतिहास बन गई है। क्षेत्र के इस माटी की उपज गन्ने की मिठास से जब फिरंगी रूबरू हुए तो उन्होंने ठीक एक सौ साल पहले गौरीबाजार में सन 1914 में चीनी मिल की स्थापना की थी। जनपद के सर्वाधिक पेराई क्षमता वाली इस चीनी मिल की चीनी कभी इंग्लैंड के बाजार में छाई रहती थी। चीनी के निर्यात के लिए अंग्रेजों ने मिल परिसर तक डबल रेल लाइन बिछाई थी। अब सबकुछ बदल गया है। जंग लगी मशीनों एवं टूटे हुए टिनशेड में परिंदों का बसेरा है। चीनी मिल से जुड़े कर्मी दुर्दिन के पल भावुक हो इस आस में काट रहे हैं कि डेढ़ वर्ष पूर्व तीसरी बार बिकी चीनी मिल कभी तो चलेगी। माटी की सुगंध को हमारे रहनुमा कभी तो पहचानेंगे।

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एक वह समय था जब पूर्वी अंचल का गौरीबाजार क्षेत्र से उत्पादित गन्ने से निर्मित चीनी विश्व विख्यात था। इसके आकर्षण से ब्रिटिश हुकूमत ने चीनी मिल के साथ ही गन्ना शोधयंत्र, जनरल आफिस, व्वायलर, गोदाम आदि भी स्थापित किए गए थे। 62 एकड़ के विशाल क्षेत्र में स्थापित इस मिल के गोदाम की क्षमता एक लाख बोरा चीनी रखने की थी। मिल की अपनी डिस्पेंसरी थी जहां श्रमिकों के अलावा क्षेत्र के किसान भी अपना इलाज कराने आते थे।

82 वर्षों बाद सन 1996 में जब चीनी मिल बंद हुई तब शेडों में हजारों कुंतल गन्ना सूख गया। किसानों के अरमान चकनाचूर हो गए। मिल चलाने के लिए श्रमिकों व किसानों ने दर्जनों बार आंदोलन किया। आंदोलन में लखनऊ व दिल्ली जाते समय तीन श्रमिकों की ट्रेन से कटकर मौत भी हो गई। आज भी चीनी मिल गेट पर सुरक्षा गार्ड राजाराम दुबे, रत्‍‌नाकर सिंह, रामसकल यादव, वेदप्रकाश सिंह आदि टाइम आफिस पर बैठक कर ड्यूटी देते हुए दिखे। इन श्रमिकों का मिल से लगाव ऐसा कि वे बिना वेतन के कार्य करते हैं।

चीनी मिल बंदी के बाद श्रमिक व उनके परिवारों पर अचानक आर्थिक तंगी का बोझ पड़ गया, जिससे समय के साथ श्रमिकों ने अपने रोजी-रोटी का जुगाड़ सुर्ती, सब्जी, नर्सरी विद्यालयों में अध्यापन आदि कार्य कर रहे हैं। श्रमिक चंडीलाल जायसवाल, सीताराम, जगदीश मिश्र, नंदलाल, जीउत यादव आदि किसी तरह अपना जीवन यापन कर रहे हैं। जब-जब चुनाव आता है, इन श्रमिकों की उम्मीदें जगती हैं। वादे किए जाते हैं। चुनाव बाद रहनुमाओं द्वारा इस मुद्दे को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है।


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