दूसरों को खुशी बांटने का नाम है ईदुलफित्र
कैसर परवेज
भदोही : ईद का दिन है गले आज तो मिल ले जालिम, रस्मे दुनियां भी है मौका भी है दस्तूर भी है। ईदुलफित्र के मुबारक मौके पर किसी शायर की यह पंक्तियां सटीक बैठती हैं। हालांकि ईद में मिलना मिलाना सिर्फ एक रस्म नहीं बल्कि मुहब्बत का खूबसूरत अहसास है जिससे दिलों की दूरियां कम होती हैं।
ईद अरबी लफ्ज (शब्द) है जिसका मतलब ऐसी खुशी है जो बार बार लौट कर आए। ईद मजहबे इस्लाम का यह सबसे बड़ा त्योहार है। इस मौके पर एक दूसरे के साथ खुशियां बांटना पैगंबरे इस्लाम का फरमान है। उलेमा बताते हैं कि ईद के दिन गले मिल कर मुबारकबाद देना, मुसाहफा (हाथ मिलाना) करना एखलाक व मुहब्बत की निशानी है लेकिन इसे रस्म नहीं बनाना चाहिए। दिलों का मैल साफ करने के बाद ही किसी को गले लगाना चाहिए। खुलकर मिलने से जिस खुशी का अहसास होता है उसे भुलाया नहीं जा सकता।
उलेमा बताते हैं कि नबी-ए-करीम के जमाने में रमजानुल मुबारक के रोजे फर्ज किए थे, उसी वक्त यानी दो हिजरी को आपने ईद मनाने का हुक्म जारी किया था। आपने सहाबा एकराम (साथियों) को ईद के मौके पर लोगों के साथ बेहतर से बेहतर सुलूक (व्यवहार) करने का हुक्म दिया था।
ईद की नमाज से पहले सदक-ए-फित्र अदा करने को सबसे अहम काम बताया गया है। हर मुसलमान को ईदगाह रवानगी से पहले पहले सदके की रकम जरूरतमंद तक पहुंचाना जरूरी है।
ताकि गरीबों, मजलूमों, बेसहारों के लिए यह रकम सामाने राहत बन सके। गरीबों के बच्चों को मुस्कुराने का मौका मिले। बताते हैं कि जब पड़ोसी भूखा हो, रिश्तेदारों में गम का आलम हो, ऐसे में आपकी खुशी का कोई मायने नहीं है।
उलेमा बताते हैं कि नबी-ए-करीम यतीमों की गमख्वारी, मिस्कीनों की दस्तगीरी और जरूरतमंदों की हाजरवाई फरमाते थे। यानी अनाथों के दुख में शामिल होते, असहायों की मदद फरमाते और जरूरमंदों की जरूरतों को पूरी किया करते थे। बताते हैं कि आप अपने साथियों को भी यही दर्स (शिक्षा) देते थे।
पूरे एक माह के रोजे रखने के बाद ईदुलफित्र जैसा दिन हासिल होता है। इसलिए लोगों को चाहिए इस दिन का न सिर्फ एहतराम करें बल्कि फरमाने मुस्तफा के मुताबिक खुद से पहले दूसरों की खुशी का ख्याल रखें।