खुद का ही अस्तित्व अधर में, संवारने चले बचपन
बस्ती : खोटी किस्मत लेकर पैदा हुए बच्चों का भाग्य बदलने के लिए बनाई गई संस्था बाल कल्याण समिति खुद क
बस्ती : खोटी किस्मत लेकर पैदा हुए बच्चों का भाग्य बदलने के लिए बनाई गई संस्था बाल कल्याण समिति खुद के अस्तित्व के लिए जूझ रही है। इसका गठन तो कर दिया गया है, मगर इनकी दुनिया आठ फिट की कोठरी में सिमट कर रह गई है। वह भी ऐसी कोठरी, जिसमें एक मात्र मेज और चार-छह कुर्सियां भर हैं। दो आलमारियां भी कमरे में रखी तो गई हैं, मगर उनका इस्तेमाल कोई दूसरे दफ्तर के बडे़ बाबू करते हैं।
जी हां, बात हो रही है जिला प्रोबेशन विभाग से संबद्ध बाल कल्याण समिति की। कचहरी परिसर के एक कोने में बनाए गए इस दफ्तर में अध्यक्ष समेत समिति के पांच सदस्य बैठते हैं। शुक्रवार को जागरण टीम इस दफ्तर में पहुंची तो अध्यक्ष सुनील रानी श्रीवास्तवा अपने सदस्य अखिलेश कुमार पांडेय, सलमा खातून, राकेश कुमार पाठक के साथ बातचीत करते मिलीं। साथ में संरक्षण अधिकारी बीना सिंह भी वहां मौजूद थीं।
समिति की बदहाली के सवाल पर वह सभी एक दूसरे मुंह ताकने लगे मानों मुंह खोलने से बचना चाह रही हों। हालांकि अंदर का नजारा देखकर ही अंदाजा लग चुका था कि दफ्तर मुश्किल से चल रहा है। न कोई आलमारी न ही दफ्तर के काम-काज की कोई भी चीज वहां दिखी। बताया गया कि यह दफ्तर पहले दूसरी जगह था, मगर मकान का किराया न देने की वजह से मकान मालिक ने उसमें ताला लगा दिया था। जिसके बाद काफी दिक्कत हुई, तब कहीं जाकर यह कमरा आवंटित हुआ, लेकिन संसाधन अब तक मुहैया नहीं हो सका। यहां तक कि शौचालय तक नहीं है, जबकि वहां कई महिला सदस्यों को दिन भर रहना पड़ता है।
खुद के खर्च पर चल रहा दफ्तर
- बाल कल्याण समिति की अध्यक्ष का कहना है कि इसके गठन से अब तक 37 मामले आए, जिनमें तीन अभी लंबित हैं। रही बात दफ्तर का खर्च की तो उसका इंतजाम अक्सर खुद करना पड़ता है। चूंकि बजट जिला प्रोबेशन अधिकारी के पास आता है, इसलिए उसके बारे में कुछ भी बता पाना संभव नहीं है।
बच्चों को बाल गृह भेजने में होती है अग्नि-परीक्षा
- समिति के सदस्य अखिलेश कुमार पांडेय के मुताबिक सबसे बड़ी समस्या तब आती है, जब किसी बच्चे को राजकीय बाल गृह भेजना होता है। इसी व्यवस्था पुलिस लाइन के प्रतिसार निरीक्षक के जिम्मे है, मगर वह भी बजट का रोना रोकर टाल देते हैं।
यहां नहीं है राजकीय बाल गृह
- मंडल मुख्यालय भले ही यहां हो पर बाल गृह न होने से तमाम दिक्कतें आ रही हैं। कानूनी पचड़े में पडे़ यहां के बच्चों को अगर बालक हो तो राजकीय बाल गृह इलाहाबाद और यदि बालिका हो तो देवरिया की एक स्वयं सेवी संस्था द्वारा चलाए जा रहे बालिका बाल गृह में भेजना पड़ता है।
क्या है समिति का उद्देश्य
- बाल कानून के अनुसार बच्चों के देखरेख और संरक्षण की विशेष जरूरत होती है। वह भी तब जब उन्हें बाल मजदूरी, बंधक बनाकर या निराश्रित बच्चों का मामला हो। बच्चों के मुद्दों को हल करने के लिए हर जिले में एक बाल कल्याण समिति सीडब्ल्यूसी का गठन किया गया है। यह पाच सदस्यीय समिति एक अध्यक्ष के नेतृत्व में कार्य करती है। और इसके सदस्यों में कम से कम एक महिला और एक बच्चों के मामलों का विशेषज्ञ शामिल होता है।
यह समिति बच्चे की देखरेख, संरक्षण, उपाचार, विकास और पुनर्वास के मामलों को निबटाने हेतु और उसकी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने तथा उसके मानव अधिकारों की रक्षा के मामले में अंतिम प्राधिकारी होती है। समिति के पास देखरेख और संरक्षण की जरूरत वाले बच्चे को उसके माता-पिता अभिभावक या किसी अन्य उपायुक्त व्यक्ति के पास वापस भेजने और उन्हें उपयुक्त निर्देश देने का अधिकार होता है।
जो भी जरूरत हो, पूरी की जाती है
- समिति की उपेक्षा के सवाल पर जिला प्रोबेशन अधिकारी दिलीप कुमार का कहना है कि बाल कल्याण समिति की बैठक केवल तीन दिन ही होती है। इसके अध्यक्ष और सदस्यों के लिए 10 बजे से 2 बजे तक समय निर्धारित है। इस दौरान इन्हें जो भी जरूरत होती है, उसे पूरा किया जाता है।