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ताजियेदारी हराम या जायज, छिड़ी जबर्दस्त बहस

जागरण संवाददाता, बरेली: मुहर्रम पर एक बार फिर ताजियेदारी पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। एक तरफ आला हजरत

By Edited By: Published: Sat, 01 Nov 2014 01:47 AM (IST)Updated: Sat, 01 Nov 2014 01:47 AM (IST)
ताजियेदारी हराम या जायज, छिड़ी जबर्दस्त बहस

जागरण संवाददाता, बरेली: मुहर्रम पर एक बार फिर ताजियेदारी पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। एक तरफ आला हजरत का फतवा है तो दूसरी तरफ खानकाह नियाजिया की सफाई। मुखालफत में तर्क यह है कि मौत पर मातम हराम है। लिहाजा, ढोल नगाड़े बजाकर या तख्त, ताजिये उठाकर मातम करना कतई जायज नहीं है। इस पर खानकाह का जवाब यह है कि ताजियेदारी की शुरुआत डेढ़ सौ साल पहले हुई। इसमें कुछ भी गलत नहीं है। सवाल किया कि मुहर्रम में जुलूस नहीं निकाला जा सकता तो फिर ईदमिलादुन्नबी पर क्यों निकलता है?

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यह वह बहस है, जो मुहर्रम का महीना शुरु होने के बाद से जारी है। जुमे के दिन तेजी पकड़ गई। मस्जिदों में खुतबे से पहले इमाम हजरात ने मुहर्रम की अहमियत पर रोशनी डालते हुए ताजियेदारी से बचने का आह्वान किया। ऐसा करने वाला गुनाह का भागीदार होगा। इस मसले पर व्हाट्स एप के जरिये भी एक दूसरे को मैसेज भेजे जा रहे हैं। उनमें ज्यादातर तादाद उन मैसेज की है, जिनमें ताजियेदारी को हराम बताया गया है। 'जागरण' ने बहस का सबब बने इस मुद्दे पर दरगाह आला हजरत के मुफ्ती और खानकाह नियाजिया के प्रबंधक से उनका पक्ष जाना। पेश है, बातचीत।

दरगाह आला हजरत

मदरसा मंजरे इस्लाम के मुफ्ती मुहम्मद सलीम नूरी ने बताया कि हिंदुस्तान में ताजियेदारी का आगाज तैमूर लंग के जमाने से हुआ। बाद में उसे ब्रिटिश हुकूमत ने बढ़ावा दिया। जहां तक इस्लाम का ताल्लुक है तो ताजियेदारी का शरीयत से कोई वास्ता नहीं है। वैसे भी पैगंबर-ए-इस्लाम ने मय्यत पर रोने-चिल्लाने को कुफ्र की अलामत बताया। ढोल-ताशे खुशी का प्रतीक हैं। इस्लाम में इससे भी मना फरमाया गया। आला हजरत ने बकायदा फतवा जारी करके ताजियेदारी को हराम करार दिया। मुहर्रम में सही तरीका यह है कि गरीबों की मदद करें, रोजा रखें और फातिहा दिलाएं। आला हजरत ने इसके लिए नसीहत भी फरमाई है।

खानकाह नियाजिया

प्रबंधक शब्बू मियां नियाजी ने बताया कि खानकाह में इमामबाड़ा 300 साल पुराना है। कुतबे आलम शाह नियाज अहमद के सज्जादानशीन हजरत निजामुद्दीन हुसैन से 150 साल पहले रामपुर के नवाब हामिद अली खां मुरीद हुए। इमामबाड़े में जरीह नज्र करने की इल्तिजा की। इजाजत मिलने पर इराक भेजकर रोजे की हूबहू शक्ल वाली जरीह नज्र कर दी। उसके बाद से मन्नत के तख्त, ताजिये, अलम और जरीह निकाली जाने लगी। मान्यता है कि इनके नीचे से निकलने पर बीमारी जाती रहती है। ख्वाजा गरीब नवाज की दरगाह में 800 साल पुराना इमामबाड़ा है। ऐसे ही इमामबाड़ा किछोछा में भी है। अब अगर मुहर्रम के जुलूस गलत हैं तो फिर ईदमिलादुन्नबी पर जुलूस क्यों निकाले जाते हैं।


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